Thursday 20 December 2007
ईद उल जुहा पर गायों की न दें कुर्बानी: दारुल उलूम
हिंदुओं की धार्मिक भावनाओं को ध्यान में रखते हुए मशहूर इस्लामी संस्था दारुल उलूम ने देश के मुसलमानों से शुक्रवार को ईद उल जुहा के मौके पर गायों की कुर्बानी नहीं करने की अपील की है। कुर्बानी को खासतौर पर मद्देनजर रखते हुए देवबंद की इस इस्लामी संस्था ने एक किताब जारी किया है। इस किताब में देश के मुसलमानों से ईद उल जुहा पर हिंदुओं की भावनाओं का सम्मान करते हुए गायों की कुर्बानी से बचने को कहा गया है। गौरतलब है कि दारुल उलूम देवबंद मुसलिम समुदाय की धार्मिक समस्याओं पर शरीयत के मद्देनजर फतवे जारी करती रही है और इनका खास असर माना जाता है। ( मुजफ्फरनगर-भाषा)
ईद की बधाई
नई दिल्ली- प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह ने देशवासियों को ईद उल जुहा की बधाई दी है। प्रधानमंत्री ने गुरुवार को यहाँ अपने बधाई संदेश में कहा कि यह त्यो हार हजरत इब्राहीम के सर्वोच्च बलिदान की भावना का स्मरण कराता है। उनका निस्वार्थ बलिदान साबित करता है कि मानवता के लिये ज्यादा अच्छा काम करना व्यक्तिगत स्वार्थ से ऊपर है। उन्होंने कहा कि इस अवसर पर मैं देशवासियों से अपील करता हूँ कि वे गरीबों, जरुरतमंदों और सुविधाओं से वंचित लोगों के उत्थान के लिए वचनबद्धता को पुन: सुनिश्चित करे। डॉ. सिंह ने आशा व्यक्त की कि ईद उल जुहा हमारे देश में सांप्रदायिक सौहार्द को और मजबूत करेगी तथा यह सभी के लिए खुशी और समृद्धि लाएगी।(भाषा)
सबसे प्यारी चीज रब की राह में खर्च करो
इस्लाम में मुख्यत: दो त्योहारों का जिक्र आता है। पहला है ईद-उल-फितर। इसे मीठी ईद और छोटी ईद भी कहा जाता है। यह त्योहार रमजान के 30 रोजे रखने के बाद मनाया जाता है। दूसरी है ईद-उल-जुहा। इसे ईद-उल-अजहा अथवा बकरा-ईद (बकरीद) और बड़ी ईद भी कहा जाता हैं। ईद-उल-जुहा हज के बाद मनाया जाने वाला त्योहार है। इस्लाम के 5 फर्ज होते हैं, हज उनमें से आखिरी फर्ज माना जाता है। हर मुसलमान के लिए अपनी सहूलियत के हिसाब से जिंदगी में एक बार हज करना जरूरी है। हज के संपूर्ण होने की खुशी में ईद-उल-जुहा का त्योहार मनाया जाता है। पर यह बलिदान का त्योहार भी है। इस्लाम में बलिदान का बहुत अधिक महत्व है। कहा गया है कि अपनी सबसे प्यारी चीज रब की राह में खर्च करो। रब की राह में खर्च करने का अर्थ नेकी और भलाई के कामों से लिया जाता है।
लगभग 4 हजार साल पहले हजरत इब्राहिम ने कुर्बानी का जो उदाहरण दुनिया के सामने रखा था, उसे आज भी परंपरागत रूप से याद किया जाता है। सिर्फ इस्लाम ही नहीं, बल्कि दुनिया में दूसरे धर्म के लोग भी हजरत इब्राहिम को पैगंबर के रूप में याद करते हैं, परन्तु जिस शिद्दत से इस्लाम ने उनके बलिदान को याद रखा है, वह अन्यथा देखने को नहीं मिलता। हजरत इब्राहिम किसी देश के राजा या शासक नहीं थे। वे एक छोटे से कबीले के सरदार थे। उनकी हैसियत ऐसी नहीं थी कि ज्यादा लोग उन्हें जानते, पर उन्होंने त्याग की भावना का जो उत्कृष्ट उदाहरण दुनिया के सामने रखा, उसकी मिसाल दुर्लभ है।
आकाशवाणी हुई कि अल्लाह की रजा के लिए अपनी सबसे प्यारी चीज कुर्बान करो, तो हजरत इब्राहिम ने सोचा कि मुझे तो अपनी औलाद ही सबसे प्रिय है। उन्होंने अपने बेटे को ही कुर्बान कर दिया। उनके इस जज्बे को सलाम करने का त्योहार है ईद-उल-जुहा। हजरत इब्राहिम की इस भावना में पूरे समाज का कल्याण और रब की रजा समाई है। कुर्बानी का मूल अर्थ है कि रक्षा के लिए सदा तत्पर। हजरत मोहम्मद साहब का फरमान है कि कोई व्यक्ति जिस परिवार, समाज, शहर या मुल्क में रहने वाला है, उस व्यक्ति का फर्ज है कि वह उस देश, समाज, परिवार की हिफाजत के लिए हर कुर्बानी देने को तैयार रहे।
वैसे तो इस्लाम में सभी कार्य रब की रजा के लिए किए जाते हैं, परंतु ईद-उल-जुहा के जरिए सामाजिक एकता और समाज कल्याण की कामना की जाती है और इससे समाज को एक सूत्र में बांधने का कार्य आसान हो जाता है। आम तौर पर यह माना जाता है कि बकरे या किसी हलाल जानवर की कुर्बानी देने से ईद-उल-जुहा के त्योहार की इतिश्री हो जाती है। ऐसी रवायत तो है, पर रवायत सिर्फ इतनी भर नहीं है।
इस्लाम में कुर्बानी का अर्थ है कि अपना वक्त, अपनी दौलत और यहां तक कि खुद की कुर्बानी भी रब की राह में देनी पड़े, तो हिचकिचाएं नहीं। रब की राह में खर्च करने का अर्थ नेकी और भलाई के कामों से है। समाज कल्याण इसका मुख्य सरोकार है, इसीलिए ईद-उल-फितर की तरह ईद-उल-जुहा में भी गरीबों और मजलूमों का खास खयाल रखा जाता है। इसी मकसद से ईद-दल-जुहा के सामान यानी कि कुर्बानी के सामान के तीन हिस्से किए जाते हैं। एक हिस्सा खुद के लिए रखा जाता है, बाकी दो हिस्से समाज में जरूरतमंदों में बांटने के लिए होते हैं, जिसे तुरंत तक्सीम कर (बांट) दिया जाता है।
ईद-उल-जुहा का एक मुख्य प्रयोजन हज का संपूर्ण होना भी है। जरूरी नहीं है कि सभी लोग हज का फर्ज पूरा कर पाते हों, परंतु मिलजुल कर हज की खुशी का मनाना समाज के संगठित होने का प्रमाण है। हज का फर्ज हर मुसलमान पूरा कर सकता है, परन्तु इसके कई नियम हैं। जैसे हज पर जाने वाला व्यक्ति किसी का कर्जदार न हो। नियम कहता है कि पहले अपना कर्ज उतारें, फिर हज पर जाएं। अपने पारिवारिक दायित्वों की अनदेखी करके भी हज पर जाना ठीक नहीं माना जाता है। तात्पर्य यह है कि इस्लाम व्यक्ति को अपने परिवार, अपने समाज के दायित्वों को पूरी तरह निभाने की हिदायत देता है।
( मुख्तार अहमद -नवभारत टाइम्स)।
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