सिर्फ कानून बनाकर क्या-क्या रोकेगी सरकार व न्यायपालिका ? जब देश में सामान्य समझ और नैतिकता नाम की कोई चीज ही नहीं रह गई है तो कानून की भी वे कितनी परवाह करेंगे। कहीं पुलिस सरकारी गुंडे की शक्ल अख्तियार कर लेती है तो कहीं मंत्री कानून व संविधान से भी ऊपर खुद को समझता है। जैसे लोग समझना ही नहीं चाहते हैं कि उनके दायरे क्या हैं और जिस निरीह जनता के सामने आप बाघ बनते हैं उसके पास भी आपसे कम अधिकार नहीं हैं। हाजत में ले जाकर किसी को भी मार डालने के सियासी खेल के तमाम उदाहरण मौजूद हैं। और अगर यकीन नहीं तो किसी भी हिंदी समाचार चैनल पर क्राइम की दिखाई जा रही कहानियां रोज परोसी जाती हैं. खुद ही देख लीजिए। यह सब तो कुछ पुरानी बातें भी हो सकती हैं मगर ताजा दो मामले ऐसे हैं जो आपको जरूर सोचने पर मजबूर कर देंगे। आखिर इस देश के लोगों को हो क्या गया है?
पहला मामला
यह एक केंद्रीय मंत्री से जुड़ा मामला है जिससे यह अपेक्षी रहती है कि वह कम से कम ऐसे व्यवहार नहीं प्रदर्शित नहीं करेगा जिसकी एक नागरिक व मंत्री होने के नाते उनसे अपेक्षा नहीं ही की जा सकती। आज ही हिमांचल में दूसरे दौर के वोट डाले जा रहे थे। विदेश राज्यमंत्री आनंद शर्मा भी वोट डालने पहुंचे। वोट देने के लिे तय चुनाव आयोग का औपचारिकताओं के तहत जब उनसे मतदाता परिचय पत्र मांगा गया तो मंत्री महोदय का जवाब था कि- मजाक मत करो। तुम मुझे पहचानते नहीं ? चुनाव ड्यूटी पर तैनात कर्मचारी ने आग्रह किया कि मंत्रीजी मैं आपको जानता हूं मगर यह औपचारिकताएं हैं जिंन्हे पूरी करनी होती है। खैर आनंद शर्मा ने अपने परिचय पत्र मंगवाए मगर उन्हें यह काफी नागवार भी लगा। तभी तो उन्होंने लगे हाथ चुनाव कर्मचारी को यह भी सुना दिया कि- तुम्हारा समय है, मजाक तो कर ही सकते हो। यह पूरा वाकया सहारा के समय समाचार चैनल ने कई बार दिखाया। एक समाचार एजंसी पीटीआई के अनुसार शायद मंत्रीजी की फोटो सूची में दर्ज फोटो से पहचान नहीं हो पारही थी। आनंद शर्मा ने कहा कि बाद में वे अपना फोटो परिचयपत्र दिखाकर वोट डाल पाए। फिर भी समय समाचार चैनल पर जो टिप्पणी उनकी सुनाई दी वह क्या किसी मंत्री स्तर के व्यक्ति को शोभा देती है। एक नागरिक होने के नाते मैं भी आनंद शर्मा जैसे शालीन राजनेता के ऐसे व्यवहार से हतप्रभ रह गया। दिमाग में सवाल भी उठे कि क्या ऐसे ही राजनेता से हम एक बेहतर भारत की उम्मीद रखते हैं। क्या नेताजी को नहीं मालूम था कि वोट देने के लिए मतदाता परिचय पत्र की जरूरत होती है या फिर चुनाव आयोग ने मंत्रियों को किसी भी तरह से वोट डालने की छूट दे रखी है? आखिर किस संविधानिक कर्तव्य व आदर्श का निर्वाह कर रहे थे मंत्रीजी। जबकि कैमरे आन हैं उस वक्त ऐसा करके आखिर संदेश देना चाहते थे मंत्रीजी। हो सकता है इस मामले पर अपनी कोई सफाई पेश कर दें मंत्री जी मगर ऐसा किया ही क्यों? संभव है उन्हें रोकने वाला चुनाव कर्मचारी कल को अपनी नौकरी से हाथ धो बैठे। उसे धृष्टता की बाकायदा सजा भी दे दी जाए। मगर तब ये मंत्रीजी अपने विभागीय अधिकारियों व कर्मचारियों से किस अनुशासन की उम्मीद रख सकते हैं। यह यक्ष प्रश्न इस लिए भी महत्वपूर्ण व विचारणीय है क्यों कि ये हमारे मंत्री हैं। यह अलग बात है कि आनंद शर्मा की जगह अगर अनंत सिंह होते तो शायद वह कर्मचारी नियम पूर्वक काम करने की सजा भी पा चुका होता। आनंद शर्मा तो सिर्फ शालीन दुर्व्यवहार करके ही रूक गए।
अब एक शिक्षक की शालीनता देखिए
भुसावल (महाराष्ट्र) स्थित सेंट्रल रेलवे स्कूल में छात्रों के शोर मचाने से खफा एक शिक्षक ने फिजिक्स लैब में 18 छात्रों को बिजली के झटके दिए। पुलिस ने शिक्षक को हिरासत में ले लिया है। प्राप्त जानकारी के मुताबिक शिक्षक सूर्यकांत द्विवेदी जब छठी कक्षा के छात्रों को पढ़ाने के लिए पहुंचे तो वे काफी शोरगुल मचाने लगे। शिक्षक के मना करने के बावजूद जब छात्रों का शोरगुल जारी रहा। नाराज होकर शिक्षक सभी छात्रों को फिजिक्स लैब में ले गए और अंदर का दरवाजा बंद कर दिया। इसके बाद एक-एक कर 18 छात्रों को बिजली का झटका दिया गया। बच्चों ने इस घटना की शिकायत अभिभावकों से की। इसके बाद मामला स्कूल प्रबंधन और पुलिस तक पहुंचा। स्कूल प्रबंधन ने शिक्षक को निलंबित कर दिया है वहीं पुलिस ने शिक्षक को हिरासत में ले लिया है। बिजली के झटके देने की इस घटना से छात्र काफी भयभीत हैं।
ये शख्स समाज के उस तबके से हैं जिन्हें गुरू का मान दिया जाता है। उम्मीद की जाती है कि इनके सानिध्य में रहकर बच्चे देश के कर्णधार बनेंगे। मगर कैसे जब इनमें ही इतना धैर्य नहीं कि बच्चों को किस हद तक सजा दी जानी चाहिए। पश्चिम बंगाल में तो छात्रों को मारने-पीटने पर ही सरकार ने रोक लगा रखी है। शायद महाराष्ट्र या देश के किसी भी हिस्से में बच्चों को ऐसे दंड देने का प्रावधान नहीं है। तो फिर कानून की परवाह क्यों नहीं है इनहें?
दो उदाहरण- एक राजनेता और दूसरा शिक्षक। दोनों ने न तो संविधान न ही अपनी नैतिक मर्यादा का पालन किया। जबकि कानून इन्हें ऐसा करने की इजाजत नहीं देता। तब सवाल यह उठता है कि क्या कानून पर्याप्त हथियार बन पाएगा इनको राह पर लाने के लिए या फिर कानून बनाने वालों को खुद इसके पालन की पहल करनी चाहिए।
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