Monday 17 December 2007
बनारस और बांसुरी वादक हरिप्रसाद चौरसिया
बनारस में रहकर गंगा में नहाएँ, जलेबी और मलाई खाएँ। उसके बिना मन नहीं लगता। 'कौनो भी देश में इ सब नहीं मिलेगा'। यह उद्गार हैं विश्व प्रसिद्ध बाँसुरी वादक पद्मविभूषण हरिप्रसाद चौरसिया के।
वाराणसी से लगे इलाहाबाद में 1938 में पैदा हुए चौरसिया ने एक विशेष साक्षात्कार में कहा कि बनारस की मिट्टी में जो सुगंध है, वह कहीं और नहीं है। यहाँ की मस्ती, यहाँ का अल्हङपन लोगों को बरबस ही अपनी ओर खींच लेता है।
यह पूछे जाने पर कि युवा वर्ग तो आधुनिक पश्चिमी संगीत की ओर खिंचा जा रहा है, ऐसे में भारतीय शास्त्रीय संगीत का समाज में आने वाले समय में क्या होगा, उन्होंने दृढ़ता से कहा कि पश्चिमी संगीत क्षणिक है और भारतीय शास्त्रीय संगीत शाश्वत है। यह ऐसा अंतर है जो कोई भी दूर नहीं कर सकता।
उन्होंने कहा कि बनारस की मिट्टी में बैठकर दाल-चावल और अचार भी खाएँ तो आनंद मिलता है। विदेशों की आधुनिकता में कुछ नहीं रखा है। विदेशों में बहुत घूमकर हमने सब देखा है। जो आनंद भारत में है वह विदेशों में कहीं भी नहीं मिलता।
बाँसुरी वादन को संगीत जगत में अहम स्थान दिलाने वाले चौरसिया ने कहा कि भारतीय संगीत के भविष्य को लेकर चिंतित होने की कोई बात नहीं है, क्योंकि यह बहुत उज्ज्वल है। और तो और विदेशों में भी लोग भारतीय संगीत की पूजा करते हैं।
उन्होंने कहा जब तक सूर्य में रोशनी रहेगी, भारतीय संगीत चमकता रहेगा। बाँसुरी सम्राट एक ही बात को लेकर बहुत उदास दिखे और वह है लोगों में बढ. रहा भौतिकवाद। उन्होंने कहा कि अब तो लोग रुपए के पीछे पागलों की तरह भागमभाग में लगे हैं। यह बहुत ही खतरनाक प्रवृत्ति है। रुपए के लिए लोग कुछ भी करने को तैयार हैं।
चौरसिया मैहर घराने के संगीतकार हैं, जिसके संस्थापक उस्ताद अलाउद्दीन खान हैं। वे मध्यप्रदेश में मैहर के राजा के दरबार में सरोद वादक थे।
एक सवाल के जवाब में चौरसिया ने बताया कि हमने बाँसुरी इसलिए अपनाई क्योंकि यह निर्विवाद तौर पर भारतीय वाद्य है, जिसका प्रयोग भगवान श्रीकृष्ण ने प्रारंभ किया था।
उन्होंने कहा कि यही कारण है कि हमारी बाँसुरी को लोगों का इतना प्यार और सम्मान मिला है जितना शायद ही किसी भी क्षेत्र में किसी अन्य को मिला होगा। उन्होंने बताया कि बाँसुरी में उनकी गुरु माँ अन्नपूर्णा देवी थीं।
पहलवान पिता के बेटे हरिप्रसाद को बचपन में छिपछिपकर बाँसुरी बजाना सीखना पङा। पिता चाहते थे कि बेटा एक मँझा हुआ पहलवान बने, लेकिन बेटे को तो कुछ और ही बनना था सो एक तो वह कुश्ती मन से नहीं लड़ते थे और दूसरे पूरा ध्यान चोरी-छिपे बाँसुरी सीखने पर लगाते थे।
जीवन के सत्तर बसंत देख चुके चौरसिया यह मानते हैं कि कुश्ती लङने में वे पिता की इच्छा के अनुरूप बेशक पारंगत नहीं हो सके हों, लेकिन उसका मुख्य लाभ यह हुआ कि उनमें गजब का माद्दा पैदा हो गया, जिससे उन्हें बाँसुरी जैसा वाद्य बजाने में कभी कोई तकलीफ नहीं हुई।
आज भी वह राग मास विहार, शंकरा अथवा छोटी बाँसुरी से पहाङी बजाते हैं तो माहौल इस प्रकार मदमस्त हो जाता है कि लोग सुध-बुध खो बैठते हैं।
उन्होंने इस बात पर दु:ख जताया कि अब कलाकारों का सम्मान आम लोगों और सरकार पर नहीं बल्कि कॉरपोरेट जगत पर निर्भर हो गया है। जब कॉरपोरेट हाउस वाले किसी को आमंत्रित करते हैं तो कलाकारों की पूछ होती है अन्यथा नहीं। स्थिति यहाँ तक हो गई है कि कॉरपोरेट न हो तो कलाकारों के कार्यक्रम आयोजित ही नहीं हों।
मीडिया की चर्चा करते हुए चौरसिया ने इस बात पर दु:ख व्यक्त किया कि आज के अखबारों और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में हत्या, बलात्कार और राजनीति की खबरें अटी पङी होती हैं जो समाज के लिए ठीक नहीं है।
लेकिन उन्होंने कहा कि समय बहुत शीघ्र समय बदलने वाला है और लोग अध्यात्म की ओर वापस आने वाले हैं।
उन्होंने कहा कि वे स्वयं जब स्टेज पर कार्यक्रम करने बैठते हैं तो यही सोचकर बैठते हैं कि वे यहाँ प्रार्थना कर रहे हैं न कि कोई व्यापार।
उन्होंने बताया कि वे संगीत के नए छात्रों के लिए मुंबई के जुहू में 'वृंदावन' नामक एक नि:शुल्क गुरुकुल चलाते हैं, जहाँ उनसे उनके शिष्य बाँसुरी की कला की बारीकियां सीखते हैं। (भाषा)
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