जिन्ना विवाद की प्रेतछाया के चलते कभी पार्टी अध्यक्ष पद से हटने को मजबूर हुए लालकृष्ण आडवाणी को भाजपा ने मौका मिलने पर प्रधानमंत्री बनाने का संकल्प लिया। इसके साथ ही भाजपा में अटलबिहारी वाजपेयी युग का अवसान हो गया। इस संकल्प की घोषणा में भाजपा के शीर्ष नेता अटलबिहारी वाजपेयी का आशीर्वाद और आडवाणी के चिरप्रतिद्वंद्वी मुरली मनोहर जोशी का साथ भी शामिल है। भाजपा की शीर्ष नीति निर्धारक इकाई पार्टी संसदीय बोर्ड की सोमवार को आननफानन बुलाई गई बैठक में सर्वसम्मत निर्णय किया गया कि अगले लोकसभा चुनाव में पार्टी का नेतृत्व लालकृष्ण आडवाणी करेंगे पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने बैठक के बाद जोशी सहित बोर्ड के तमाम सदस्यों के बीच यह घोषणा की। सिंह ने बताया कि बोर्ड की बैठक से पहले उन्होंने वाजपेयी से इस बार में सलाह ली और पूर्व प्रधानमंत्री ने ही अपनी खराब सेहत को देखते हुए अगले आम चुनावों में पार्टी की कमान आडवाणी को सौंपने को कहा।
वाजपेयी के प्रति आभार : इस घोषणा के बाद आडवाणी ने वाजपेयी के प्रति आभार प्रकट किया और कहा- मैं भगवान से प्रार्थना करता हूँ कि उनकी (वाजपेयी) आकांक्षाओं पर खरा उतरूँ। शीर्ष नेता के रूप में आडवाणी को पेश किए किए जाने का शुरू से विरोध करते आ रहे जोशी ने इस फैसले के बारे में पूछे जाने पर कहा कि श्रद्धेय वाजपेयी की सलाह से किया गया यह फैसला पार्टी के लिए शुभ है। यह अच्छा फैसला है।पार्टी सूत्रों ने बताया कि पार्टी में अधिकतर लोगों की धारणा थी कि आडवाणी को अभी से प्रधानमंत्री पद के दावेदार के रूप में पेश किया जाए जिससे कि इस विषय को लेकर पिछले कुछ समय से बना आ रहा असमंजस दूर हो जाए और यह सवाल भी शांत हो जाए कि पूर्व प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी के अस्वस्थ रहने के कारण उनकी जगह कौन लेगा। वाजपेयी लंबे समय से अस्वस्थ हैं। इस कारण वह कुछ दिनों से पार्टी की बैठकों में हिस्सा नहीं ले पा रहे हैं। भाजपा की पिछली राष्ट्रीय कार्यकारिणी में भी वह नहीं जा सके। ऐसा पहली बार हुआ है।
मध्यावधि की तैयारी : उल्लेखनीय है कि माकपा महासचिव प्रकाश करात ने सरकार को खुली धमकी दी है कि अगर वह भारत-अमेरिका परमाणु समझौते को लागू करने की दिशा में आगे बढ़ी तो वाम दल गुजरात विधानसभा चुनाव के बाद उससे समर्थन वापस ले लेंगे।करात की इस धमकी से मध्यवाधि चुनावों की संभावनाएँ एक बार फिर बढ़ गई हैं। भाजपा अध्यक्ष राजनाथसिंह ने माकपा नेता के इस बयान पर आज कहा कि उनकी पार्टी चुनाव के लिए पूरी तरह तैयार है।
आडवाणी का सफरनामा
लालकृष्ण आडवाणी 2005 तक बीजेपी के प्रेजिडेंट रहे। अब वह लोकसभा में विपक्ष के नेता हैं। 1984 में बीजेपी की लोकसभा में सिर्फ दो सीटें थीं। पार्टी के विस्तार का श्रेय आडवाणी को जाता है। आडवाणी ने राम भक्तों को अयोध्या में मंदिर बनाने के लिए उत्साहित करने के लिए 1990 में रथ यात्रा निकाली। इसका असर रहा कि पार्टी ने 1996 के चुनावों में भारी जीत हासिल की। तब आडवाणी ने ऐलान किया कि अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री होंगे।
आरएसएस में शुरुआत
आडवाणी 1942 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) से जुड़े। वह संघ की कराची ब्रांच के सेक्रेटरी थे। देश का बंटवारा होने पर वह भारत आ गए और 1951 में भारतीय जनसंघ की स्थापना में भागीदार बने। प्रारंभ में कुछ समय वह राजस्थान में सक्रिय रहे पर बाद में दिल्ली आ गए। 1966 में वह दिल्ली महानगर परिषद के अध्यक्ष चुने गए। 1970 में वह जनसंघ की टिकट पर राज्यसभा के लिए निर्वाचित हुए और 1989 तक उन्होंने इसी सदन में अपनी प्रतिभा का परिचय दिया।
राजनीतिक सफर
इमरजेंसी के दौरान 1975 से 1977 तक वह मीसा एक्ट के तहत बेंगलुरु जेल में कैद रहे। लॉ ग्रैजुएट आडवाणी ने 1977 में जनता पार्टी की सरकार में सूचना और प्रसारण मंत्री का पद संभाला। 1980 में राज्यसभा में विपक्ष के नेता रहे। 1989 और 1991 में वह लोकसभा के लिए चुनाव जीते। 1991 से 1993 तक आडवाणी लोकसभा में विपक्ष के नेता रहे। उन्होंने 1998 से 2004 तक सरकार में गृह मंत्री का पद संभाला और 1999 से 2004 तक उप प्रधानमंत्री रहे। 1999 में उन्हें बेस्ट सांसद अवॉर्ड से भी नवाजा गया।
आडवाणी पर आरोप
आडवाणी 1992 में अयोध्या में विवादित ढांचा ढहाने के मामले में आरोपी हैं। सितंबर 2003 में रायबरेली की एक अदालत ने आडवाणी को मामले से बरी कर दिया था। तब वह गृह मंत्री थे। जून 2005 में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने रायबरेली की अदालत के फैसले को निरस्त करते हुए आडवाणी के खिलाफ कार्यवाही फिर से शुरू की। 2005 में पाकिस्तान यात्रा के दौरान जिन्ना की मजार में जाकर की गई उनकी टिप्पणी ने खासा विवाद पैदा किया और उन्हें पार्टी अध्यक्ष पद से हाथ धोना पड़ा।
भाजपा का 'रथी'
लोकसभा की दो सीटों तक सिमट चुकी भाजपा को सत्ता में लाने का करिश्मा दिखा चुके भाजपा के 'कृष्ण' लालजी को पार्टी ने अपना प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर न सिर्फ अटलबिहारी वाजपेयी की विरासत सौंपी बल्कि उनसे अपनी अपेक्षाएँ भी बढ़ा लीं।आठ नवंबर 1929 को गुलाम लेकिन अविभाजित भारत के कराची में पैदा हुए लालकृष्ण आडवाणी का मूल नाम लालकिशन चंद्र आडवाणी है लेकिन पार्टी में उनके समकालीन प्यार से उन्हें 'लालजी' बुलाते हैं।कराची के सेंट पैट्रिक्स में शुरुआती शिक्षा के बाद बंबई विश्वविद्यालय से कानून की डिग्री हासिल करने वाले आडवाणी ने हालाँकि कभी वकालत नहीं किया लेकिन हमेशा राष्ट्रवाद के पैरोकार बने रहे। उच्चतम न्यायालय में वे एक बार वकील के तौर पर उतरे। वह साल 1974 का था जब वे पार्टी की ओर से राष्ट्रपति द्वारा माँगी गई सलाह पर काले लिबास में देश की शीर्ष अदालत में दलील देने पहुँचे।कभी फिल्मों की समीक्षा लिखने वाले भाजपा के इस शीर्ष पुरुष फिल्मों के साथ साथ पुस्तकें पढ़ने और उनका संग्रह करने का शौक है। उन्हें अपने पुस्तकों के संकलन पर फख्र भी है।गाँधी ने जिस साल अंग्रेजों भारत छोड़ों का नारा दिया उसी साल आडवाणी 1942 में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सदस्य बने। तब उन्हें कराची में संघ की शाखा के सचिव का दायित्व सौंपा गया था।
श्यामा प्रसाद मुखर्जी द्वारा 1951 में स्थापित जनसंघ के जमाने से राजनीति में सक्रिय आडवाणी 1986 में भाजपा अध्यक्ष बने और उसके बाद राम रसायन और पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रतापसिंह के 'मंडल' विष की काट के तौर पर 'रथयात्रा' पर सवार होकर मजबूती से स्थापित हुए।पहली बार 1989 में लोकसभा में दाखिल होने वाले आडवाणी 1977 की जनता सरकार के समय देश के सूचना प्रसारण मंत्री थे। उस समय वह राज्यसभा के सदस्य थे जो सिलसिला 1970 से चल रहा था। उन्होंने प्रेस की स्वतंत्रता पर आपातकाल के दौरान लगी बंदिशों की कड़ियाँ तोड़ीं। आपातकाल के दौरान वे बेंगलुरू जेल में मीसा के तहत कैद रहे।राजस्थान में संघ का कामकाज देखने के बाद 1957 में दिल्ली आए इस नेता ने 1973 से 1977 तक जनसंघ के अध्यक्ष का कामकाज संभाला। 1980 में भारतीय जनता पार्टी का जन्म होने पर वे पार्टी के महासचिव बनाए गए और 1986 में इसी पार्टी के अध्यक्ष बने। इससे पहले 1984 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद उपजी सहानुभूति की लहर में पार्टी दो सीटों तक सिमट गई थी और दिग्गज अटलबिहारी वाजपेयी भी चुनाव में पराजित हो चुके थे।भाजपा अध्यक्ष के रूप में आडवाणी का अंतिम कार्यकाल काफी उठा-पटक वाला रहा जिस दौरान उन्होंने पाकिस्तान यात्रा पर जाकर मोहम्मद अली जिन्ना के बारे में जो बयान दिया, उसे लेकर हिन्दुवादी संगठनों में तूफान उठा। 18 सितंबर 2005 को भाजपा अध्यक्ष पद से उन्हें इस्तीफा देना पड़ा था और उसके बाद राजनाथसिंह ने पार्टी की बागडोर संभाली ।
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