Tuesday 11 December 2007

क्या अश्वत्थामा जीवित हैं...?





असीरगढ़ का किला... रहस्यमय किला... कहते हैं यहाँ स्थित शिव मंदिर में महाभारतकाल के अश्वत्थामा आज भी पूजा-अर्चना करने आते हैं। इस किंवदंती को सुनने के बाद हमने फैसला किया कि सबसे पहले इसी किले के रहस्यों को कुरेदेंगे... देखेंगे कि यह किंवदंती कहाँ तक सच है। असीरगढ़ का किला बुरहानपुर शहर से 20 किलोमीटर दूर है। किले पर चढ़ाई करने से पहले हमने किले के आसपास रहने वाले बड़े-बुजुर्गों से इस बाबत जानकारी हासिल की।

हर एक ने हमें किले के संबंध में अजीबो-गरीब दास्तां सुनाई। किसी ने बताया 'उनके दादा ने उन्हें कई बार वहाँ अश्वत्थामा को देखने का किस्सा सुनाया है।' तो किसी ने कहा- 'जब वे मछली पकड़ने वहाँ के तालाब में गए थे, तो अंधेरे में उन्हें किसी ने तेजी से धक्का दिया था। शायद धक्का देने वाले को मेरा वहाँ आना पसंद नहीं आया।' गाँव के कई बुजुर्गों की बातें ऐसे ही किस्सों से भरी हुई थीं। किसी का कहना था कि जो एक बार अश्वत्थामा को देख लेता है, उसका मानसिक संतुलन बिगड़ जाता है।

बुजुर्गों से चर्चा करने के बाद हमने रुख किया असीरगढ़ के किले की तरफ। यह किला आज भी पाषाण युग में जीता नजर आता है। बिजली के युग में यहाँ की रातें अंधकार में डूबी रहती हैं। शाम छह बजे से किले का अंधकार 'भुतहा' रूप ले लेता है। इस सुनसान किले पर चढ़ाई करते समय कुछ गाँव वाले हमारे साथ हो गए।

हमारे इस सफर के साथी थे गाँव के सरपंच हारून बेग, गाइड मुकेश गढ़वाल और दो-तीन स्थानीय लोग। हमारी घड़ी का काँटा शाम के छह बजा रहा था। लगभग आधे घंटे की पैदल चढ़ाई करने के बाद हमने किले के बाहरी बड़े दरवाजे पर दस्तक दी।

जाहिर है, किले का दरवाजा खुला हुआ था। हमने अंदर की तरफ रुख किया। लंबी घास के बीच जंगली पौधों को हटाते हुए हम आगे बढ़ते जा रहे थे। तभी हमारी नजर कुछ कब्रों पर पड़ी। एक नजर देखने पर कब्रें काफी पुरानी मालूम हुईं। साथ आए गाइड मुकेश ने बताया कि यह अंग्रेज सैनिकों की कब्रें हैं।

कुछ देर यहाँ ठहरने के बाद हम आगे बढ़ते गए। हमें टुकड़ों में बँटा एक तालाब दिखाई दिया। तालाब को देखते ही मुकेश बताने लगा, यही वो तालाब है जिसमें स्नान करके अश्वत्थामा शिव मंदिर में पूजा-अर्चना करने जाते हैं, वहीं कुछ लोगों का कहना था नहीं वे 'उतालवी नदी' में स्नान करके पूजा के लिए यहाँ आते हैं। हमने तालाब को गौर से देखा। लगता है पहाड़ियों से घिरी इस जगह पर बारिश का पानी जमा हो जाता है। सफाई न होने के कारण यह पानी हरा नजर आ रहा था, लेकिन आश्चर्य यह कि बुरहानपुर की तपती गरमी में भी यह तालाब सूखता नहीं।

कुछ कदम और चलने पर हमें लोहे के दो बड़े एंगल दिखाई दिए। गाइड ने बताया यह फाँसीघर है। यहाँ फाँसी की सजा दी जाती थी। सजा के बाद मुर्दा शरीर यूँ ही लटका रहता था। अंत में नीचे बनी खाई में उसका कंकाल गिर जाता था। यह सुन हम सभी की रूह काँप गई।

हमने यहाँ से आगे बढ़ना ही बेहतर समझा। हम थोड़ा ही आगे बढ़े थे कि हमें गुप्तेश्वर महादेव का मंदिर दिखाई दिया। मंदिर चहुँओर से खाइयों से घिरा हुआ था। किंवदंती के अनुसार इन्हीं खाइयों में से किसी एक में गुप्त रास्ता बना हुआ है, जो खांडव वन (खंडवा जिला) से होता हुआ सीधे इस मंदिर में निकलता है। इसी रास्ते से होते हुए अश्वत्थामा मंदिर के अंदर आते हैं। हम मंदिर के अंदर दाखिल हुए। यहाँ की सीढ़ियाँ घुमावदार थीं और चारों तरफ खाई बनी हुई थी। जरा-सी चूक से हम खाई में गिर सकते थे।
बड़ी सावधानी से हम मंदिर के अंदर दाखिल हुए। मंदिर देखकर महसूस हो रहा था कि भले ही इस मंदिर में कोई रोशनी और आधुनिक व्यवस्था न हो, यहाँ परिंदा भी पर न मारता हो, लेकिन पूजा लगातार जारी है। वहाँ श्रीफल के टुकड़े नजर आए। शिवलिंग पर गुलाल चढ़ाया गया था। हमने रात इसी मंदिर में गुजारने का फैसला कर लिया। अभी रात के बारह बजे थे। गाइड मुकेश हमसे नीचे उतरने की विनती करने लगा। उसने कहा यहाँ रात रुकना ठीक नहीं, लेकिन हमारे दबाव देने पर वह भी हमारे साथ रुक गया।

इस वीराने में रात भयानक लग रही थी। लग रहा था कि समय न जाने कैसे कटेगा। घड़ी की सूई दो बजे पर पहुँची ही थी कि तापमान एकदम से घट गया। बुरहानपुर जैसे इलाके में जून की तपती गरमी में इतनी ठंड। मुझे ध्यान आया कि मैंने कहीं पढ़ा था कि 'जहाँ आत्माएँ आसपास होती हैं, वहाँ का तापमान एकदम ठंडा हो जाता है'। क्या हमारे आसपास भी ऐसा ही कुछ था। हमारे कुछ साथी घबराने लगे थे। हमने ठंड औऱ डर दोनों को भगाने के लिए अलाव जला लिया था।

आसपास का माहौल बेहद डरावना हो गया था। पेड़ों पर मौजूद कीड़े अजीब-अजीब-सी आवाजें निकाल रहे थे। खाली खंडहरों से टकराकर हवा साँय-साँय कर रही थी। समय रेंगता हुआ कट रहा था। चार बजे के लगभग आसमान में हलकी-सी ललिमा दिखाई दे रही थी। पौ फटने को थी। साथ आए सरपंच हारून बेग ने सुझाव दिया कि बाहर जाकर तालाब को देखना चाहिए। देखें क्या वहाँ कोई है। हम सभी तालाब की ओर निकल पड़े।

कुछ देर हमने तालाब को निहारा, इधर-उधर टहलकर किले का जायजा लिया। हमें कुछ भी दिखाई नहीं दिया। भोर का हलका उजास हर और फैलने लगा। हम सभी मंदिर की ओर मुड़ गए। लेकिन यह क्या, शिवलिंग पर गुलाब चढ़े हुए थे। हमारे आश्चर्य का ठिकाना न था। आखिर यह कैसे हुआ। किसी के पास इसका जवाब नहीं था। अब यह सच था या किसी की शरारत या फिर इन खाइयों में कोई महात्मा साधना करते हैं, इस बारे में कोई भी नहीं जानता न ही इन खाइयों से जाती सुरंग का ही पता लग पाया है, लेकिन इतना अवश्य है कि अतीत के कई राज इस खंडहर के किले की दीवारों में बंद हैं, जिन्हें कुरेदने की जरूरत है।

कब से शुरू हुआ यह सिलसिला :

यहाँ का इतिहास जानने के लिए हमने संपर्क किया डॉ. मोहम्मद शफी (प्रोफेसर, सेवा सदन महाविद्यालय, बुरहानपुर) से। शफी साहब ने बताया कि बुरहानपुर का इतिहास महाभारतकाल से जुड़ा हुआ है। पहले यह जगह 'खांडव वन' से जुड़ी हुई थी। किले का नाम असीरगढ़ यहाँ के एक प्रमुख चरवाहे आसा अहीर के नाम पर रखा गया था। किले को यह स्वरूप 1380 ई. में फारूखी वंश के बादशाहों ने दिया था। जहाँ तक अश्वत्थामा की बात है, तो शफी साहब फरमाते हैं कि मैंने बचपन से ही इन किंवदंतियों को सुना है। मानो तो यह सच है न मानो तो झूठ। लेकिन इतना अवश्य है कि इस किले से कई सुरंगें जुड़ी हुई हैं। इन सुरगों का दूसरा मुँह कहाँ है, यह कोई नहीं बता सकता। जब तक इन सुरंगों का राज नहीं खुलेगा, तब तक इस किंवदंती से भी परदा नहीं उठेगा। (स्रोत-वेबदुनिया)

6 comments:

राजीव जैन Rajeev Jain said...

अश्‍वत्‍थामा का खैर जो भी हो
इस किले और इसके इतिहास से परिचित कराने के लिए साधुवाद

Mired Mirage said...

दिलचस्प किस्सा है ।
घुघूती बासूती

अभय तिवारी said...

रहस्य रोमांच की दुनिया..

Sanjeet Tripathi said...

जी टीवी पर कुछ महीने पहले एक इसी पर एक स्टोरी देखी थी।

Sanjeet Tripathi said...

संशोधन- "जी न्यूज़ पर"

javed shah said...

ashwastthama ke baare me jankari dekar aapne mujhe malamal kar diya.

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