Sunday 9 December 2007
त्रिलोचन शास्त्री : हार गए जीने की जंग !
चिंतन ब्लाग में त्रिलोचन पर कई सामग्री पहले भी दी जा चुकी हैं। जिसमें उनपर लिखी एक सामग्री का शीर्षक दिया है------ अब है जीने की जंग। लेकिन आज उनके यह जंग हार जाने की खबर सुनकर दिल रो पड़ा। त्रिलोचन मेरे लिए सिर्फ कवि नहीं थे। बेहद पारिवारिक स्तर पर उनसे लगाव था। अब इतना दुखी हूं कि सिर्फ श्रद्धांजलि के अलावा कुछ और कहने को मेरे पास शब्द नहीं हैं। निधन की खबर के साथ कुछ और बातें मेरे ही ब्लाग में त्रिलोचन शीर्षक से छपा है। शेष फिर कभी। भगवान त्रिलोचनजी की आत्मा को शांति प्रदान करें साथ ही इस दुख को सह लेने की ताकत भी उनके परिवार को प्रदान करें। त्रिलोचनजी के छोटे बेटे अमितजी तो मेरे अग्रज हैं और बड़े भाई जयप्रकाशजी काशी हिंदू विश्वविद्यालय में मेरे गुरू रहे हैं। अर्थात त्रिलोचनजी का जाना मेरे लिए भी पारिवारिक शोक ही है। हिंदी के अखबार प्रभात खबर, राष्ट्रीय सहारा, अमर उजालाव दैनिक जागरण समेत की अखबारों व समाचार एजंसियों ने फौरन ही अपने वेबसाइट पर फ्लैश व खबर देना शुरू कर दिया था। श्रद्धांजलि स्वरूप नीचे उनके निधन की खबर दो अखबारों से यहां उद्धृत हैं। पहली जनसत्ता की पीडीएफ फार्म में खबर व दूसरी दैनिक जागरण की पूरी खबर। व्यथित मन एकांत चाह रहा है इसलिए इससे आगे कुछ भी लिख पाने में असमर्थ हूं। क्षमा चाहूंगा।
कवि त्रिलोचन शास्त्री नहीं रहे
त्रिलोचन शास्त्री के निधन से समकालीन कविता की त्रयी की आखिरी कड़ी भी आज टूट गई। इस माला के नागार्जुन व केदारनाथ को पहले ही काल हिंदी प्रेमियों से छीन चुका है। हिंदी के प्रगतिशील कवि शास्त्री ने रविवार शाम अपने आवास पर आखिरी सांस ली। वह 90 वर्ष के थे। उनके परिवार में दो बेटे हैं और उनकी पत्नी का स्वर्गवास कई वर्ष पहले हो गया था। उनके निधन पर समस्त बुद्धिजीवी वर्ग शोक में डूब गया है। कई नामी लेखकों व कवियों ने उनके निधन को साहित्य जगत की अपूरणीय क्षति बताया।
शास्त्री के छोटे पुत्र व पेशे से पत्रकार अमित प्रकाश ने बताया कि उन्होंने गाजियाबाद के वैशाली स्थित निवास पर शाम साढे़ चार बजे अंतिम सांस ली। वह कई महीने से बीमार चल रहे थे। प्रकाश ने बताया कि उनका अंतिम संस्कार सोमवार दोपहर 12 बजे दिल्ली के निगम बोध घाट पर किया जाएगा।
उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर जिले के कठघरा चिरानी पट्टी में जगरदेव सिंह के घर 20 अगस्त 1917 को जन्मे त्रिलोचन शास्त्री का मूल नाम वासुदेव सिंह था। उन्होंने काशी हिंदू विश्वविद्यालय से एमए अंग्रेजी की एवं लाहौर से संस्कृत में शास्त्री की डिग्री प्राप्त की थी।
उत्तर प्रदेश के छोटे से गांव से बनारस विश्वविद्यालय तक अपने सफर में उन्होंने दर्जनों पुस्तकें लिखीं और हिंदी साहित्य को समृद्ध किया। शास्त्री बाजारवाद के धुर विरोधी थे। हालांकि उन्होंने हिंदी में प्रयोगधर्मिता का समर्थन किया। उनका कहना था, भाषा में जितने प्रयोग होंगे वह उतनी ही समृद्ध होगी। शास्त्री ने हमेशा ही नवसृजन को बढ़ावा दिया। वह नए लेखकों के लिए उत्प्रेरक थे।
त्रिलोचन शास्त्री को 1989-90 में हिंदी अकादमी ने शलाका सम्मान से सम्मानित किया था। हिंदी साहित्य में उत्कृष्ट योगदान के लिए उन्हे 'शास्त्री' और 'साहित्य रत्न' जैसे उपाधियों से सम्मानित किया जा चुका है। हिंदी के अतिरिक्त वे अरबी और फारसी भाषाओं के निष्णात ज्ञाता माने जाते थे। पत्रकारिता के क्षेत्र में भी वे खासे सक्रिय रहे है। उन्होंने प्रभाकर, वानर, हंस, आज, समाज जैसी पत्र-पत्रिकाओं का संपादन किया।
त्रिलोचन शास्त्री 1995 से 2001 तक जन संस्कृति मंच के राष्ट्रीय अध्यक्ष भी रहे। इसके अलावा वाराणसी के ज्ञानमंडल प्रकाशन संस्था में भी काम करते रहे और हिंदी व उर्दू के कई शब्दकोषों की योजना से भी जुडे़ रहे। उनका पहला कविता संग्रह धरती 1945 में प्रकाशित हुआ था। गुलाब और बुलबुल, उस जनपथ का कवि हूं और ताप के तापे हुए दिन उनके चर्चित कविता संग्रह थे। दिगंत और धरती जैसी रचनाओं को कलमबद्ध करने वाले शास्त्री को 1982 में ताप के तापे हुए दिन के लिए साहित्य अकादमी का पुरस्कार भी मिला था। उनके 17 कविता संग्रह प्रकाशित हुए। उनका नवीनतम कविता संग्रह जीने की कला पिछले साल प्रकाशित हुआ। उनका कहानी संग्रह देशकाल भी चर्चित रहा।
जनवादी लेखक संघ, प्रगतिशील लेखक संघ और जन संस्कृति मंच ने उनके निधन पर गहरा शोक व्यक्त किया है। नामवर सिंह, केदारनाथ सिंह, अशोक वाजपेयी, विश्वनाथ त्रिपाठी, कमला प्रसाद समेत कई लेखकों और कवियों ने शास्त्री के निधन को हिंदी की प्रगतिशील और जनपदीय चेतना की कविता के लिए बड़ी क्षति बताया है। उनके निधन से एक युग का अंत हो गया है। शास्त्री की कविता में परंपरा और आधुनिकता का गहरा मेल था तथा उनके व्यक्तित्व में फकीराना अंदाज था।
जन संस्कृति मंच ने अपने पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष व जनता के सुख-दुख के गायक वरिष्ठ कवि शास्त्री के निधन को साहित्य जगत के लिए अपूरणीय क्षति बताया। मंच की संयोजक भाषा सिंह ने कहा कि वे जनता के धीरज और ताकत, साधारण और विशिष्टता के असाधारण कवि थे। उन्होंने कहा कि साधारण जन की संस्कृति को अपनी रचना का स्त्रोत बनाने में उनकी रचनाशीलता अद्वितीय रही। उन्होंने कहा कि त्रिलोचन, नागार्जुन और केदारनाथ की त्रयी इसी रूप में हिंदी साहित्य को जन आयाम देते रही।
1945 में धरती कविता संग्रह में प्रकाशित - चम्पा काले अक्षर नहीं चीन्हती - में त्रिलोचन शास्त्री ने अपनी भावनाएं कुछ ऐसे व्यक्त की:-
चम्पा काले अक्षर नहीं चीन्हती
मैं जब पढ़ने लगता हूं वह आ जाती है
खड़ी खड़ी चुपचाप सुना करती है
उसे बड़ा अचरज होता है:
इन काले चिन्हों से कैसे ये सब स्वर
निकला करते हैं।
चम्पा सुंदर की लड़की है
सुंदर ग्वाला है : गाय भैंसे रखता है
चम्पा चौपायों को लेकर
चरवाही करने जाती है।
चम्पा अच्छी है
चंचल है
न ट ख ट भी है
कभी कभी ऊधम करती है
कभी कभी वह कलम चुरा देती है
जैसे तैसे उसे ढूंढ कर जब लाता हूं
पाता हूं-अब कागज गायब है
परेशान फिर हो जाता हूं।
चम्पा कहती है :
तुम कागद ही गोदा करते हो दिन भर
क्या यह काम बहुत अच्छा है
यह सुनकर मैं हंस देता हूं
फिर चम्पा चुप हो जाती है
उस दिन चम्पा आई, मैंने कहा कि
चम्पा, तुम भी पढ़ लो
हारे गाढ़े काम सरेगा
गांधी बाबा की इच्छा है-
सब जन पढ़ना लिखना सीखें
चम्पा ने यह कहा कि
मैं तो नहीं पढ़ूंगी
तुम तो कहते थे गांधी बाबा अच्छे हैं
वे पढ़ने लिखने की कैसे बात कहेंगे
मैं तो नहीं पढ़ूंगी
मैंने कहा चम्पा, पढ़ लेना अच्छा है
ब्याह तुम्हारा होगा, तुम गौने जाओगी,
कुछ दिन बालम संग साथ रह चला जाएगा जब कलकत्ता
बड़ी दूर है वह कलकत्ता
कैसे उसे संदेसा दोगी
कैसे उसके पत्र पढ़ोगी
चम्पा पढ़ लेना अच्छा है!
चम्पा बोली : तुम कितने झूठे हो, देखा,
हाय राम, तुम पढ़-लिख कर इतने झूठे हो
मैं तो ब्याह कभी न करुंगी
और कहीं जो ब्याह हो गया
तो मैं अपने बालम को संग साथ रखूंगी
कलकत्ता में कभी न जाने दुंगी
कलकत्ता पर बजर गिरे।
(दैनिक जागरण हिंदी दैनिक से साभार)
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2 comments:
त्रिलोचन जी को मेरा नमन......
डा. रमा द्विवेदी said...
परम श्रद्धेय त्रिलोचन जी के निधन से हिन्दी साहित्य जगत की अपूर्णनीय क्षति हुई है,उनको कादम्बिनी परिवार,हैदराबाद का शत-शत नमन।
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