Monday 10 December 2007

विदा हुए त्रिलोचन




त्रिलोचन जी कितने संघर्षशील व जीवट के शख्स थे इसका अंदाजा लगाने के लिए उनके जीवन के उतार-चढ़ाव में झांकने की जरूरत नहीं। इस पोस्ट के साथ त्रिलोचनजी के लिखने बैठे फोटो की मुद्रा ही इस बात की गवाह है। यह फोटो त्रिलोचनजी की पोती पंखुड़ी ने खीची है। फोटो मैने इरफानजी के ब्लाग से लेने की धृष्टता की है। बकौल इरफान इस दुनिया से विदा लेने के महज १० घंटे पहले त्रिलोचनजी कुछ लिखने की कोशिश में लगे हुए थे। जहां तक मुझे याद है इससे पहले कई बार बीमार होकर मौत के करीब जाकर फिर लौट आए त्रिलोचनजी ने कभी ऐसा नहीं सोचा कि अब आखिरी घड़ी में कुछ रच लेना चाहिए। मिलने-जुलने वालों से भले ही इच्छा लिखने की जाहिर की हो मगर बैठकर लिखने की मुद्रा में शायद ही आए। सन् २००५ में बीबीसी हिंदी सेवा ने भी उनकी सुध ली थी और यही बताया था कि बेहद अशक्त होकर बिस्तर में फिक्स हो गए हैं त्रिलोचन।
त्रिलोचनजी के परिवार से मेरा भी अकसर मिलना-जुलना रहा है। यहां कोलकाता में उनका पोता मनु नौकरी करता है। फोन पर त्रिलोचनजी के छोटे बेटे अमितजी और उनकी पत्नी ऊषाजी से भी हालचाल मालूम होता था। इन सभी लोगों ने बिस्तर पकड़ लेने के बाद त्रिलोचनजी की काफी सेवा की है। याददास्त तक ठीक न रहने तक की शिकायत थी। खुद कुछ भी कर पाने में अशक्त हो चुके त्रिलोचन जी के इस कदर बैठकर कुछ रचने की कोशिश आखिर किस बात की ओर ईशारा करती है। बकौल ऊषाजी यह तूफान के पहले की शांति थी। फोन पर उषाजी ने जो कहा मुझे भी उसका यकीन हो गया। शायद उन्हें अपने जाने का आभाष हो गया था। आप इन बातों पर यकीन न करें मगर मैं इन बातों का साक्षी हूं।
मेरे पिताजी ने भी इस दुनियां से विदा लेने से पहले कुछ इसी तरह के व्यवहार प्रदर्शित किए थे। बात सन् १९९४ की है। मौं काशी क्षेत्र का रहने वाला हूं। आस्थावान व भक्त किस्म के थे मेरे पिताजी। सुबह व शाम नियमित पूजा-पाठ करते थे। एक दिन अचानक पिताजी ने मेरे बड़े भाई को बुलवाया और कहा कि तुम अयोध्या चले जाओ और मेरी पूजा की यह पोथी सरजू नदी में प्रवाहित कर दो। मेरे भाई पिता से कभी कोई सवाल न करके सीधे आदेश का पालन करते थे। शायद इसी लिए पिताजी ने इस काम के लिए बड़े भाई को ही चुना। मुझे जानते थे कि यह तर्क-कुतर्क करता है। लेकिन पिता के इस व्यवहार से हम सभी सशंकित हो गए थे। और हुआ वही जिसका डर था। कुछ महीने बाद ही ४ मार्च १९९४ को पिताजी अचानक चल बसे। वे भले चंगे थे और कोई बीमारी भी उन्हें नहीं थी।
इससे ठीक पहले भी एक विस्मयकारी घटना हुई थी। १५-२० दिन पहले मेरे बड़े भाई के स्वसुर मेरे घर आए हुए थे। जब वे जाने लगे तो मेरे पिताजी से कहा कि अब मेरे जाने का वक्त आगया है इस लिए आपसे मिलने की बड़ी इच्छा थी। कहते हैं कि मेरे पिताजी ने भी कुछ ऐसा ही जवाब दिया था। मेरे पिताजी तो बूढ़े थे इस लिए ऐसा कहा होगा मगर अभी काफी अच्छे दिख रहे भैया के स्वसुर ने ऐसा कयों कहा, यह तब समझ में आया जब अपने घर पहुंचने के एक दिन बाद ही वे इस दुनिया से विदा ले लिए। ठीक जिस दिन उनकी तेरही थी उसी दिन मेरे पिताजी भी शाम चार बजे परलोक सिधार गए। दोनों ने एक साथ इस दुनिया से अलविदा लेने का अपना वायदा पूरा किया। ताज्जुब तो यह है कि दोनों में से कोई बीमार नहीं था।
अब इन घटनाओं को क्या मानें? शायद संयोग मगर यह भी सत्य है कि इन लोगों को अपने जाने का आभाष हो गया था। तभी तो विदा लेने से महज दस घंटे पहले फिर कुछ लिख लेना चाहते थे त्रिलोचन।

1 comment:

आभा said...

त्रिलोचन जी को खोकर खुद को कंगाल सा पा रही हूँ....
क्या करूँ....

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