मुंबई स्थित एशिया की सबसे बड़ी झुग्गी बस्ती धारावी को धराशायी करने के लिए दुनिया भर की कंपनियों से टेंडर मँगवाए गए हैं जिसका विरोध हो रहा है.
सरकर का कहना है कि धारावी निवासियों के लिए नए फ्लैट बनेंगे सरकार ने बुधवार को विज्ञापन जारी कर भारतीय और विदेशी बिल्डरों को धारावी को ख़ूबसूरत टाउनशिप में तब्दील करने के लिए आमंत्रित किया है.
टीन, एस्बेस्टस और कबाड़ से बने घरों को तोड़कर बहुमंजिले फ़्लैट और दफ़्तर बनाए जाएँगे.
सरकार की योजना धारावी में रहने वाले पाँच लाख से अधिक लोगों को नए घरों में स्थानांतरित करने की है लेकिन वहाँ के लोग अपना आशियाना उजाड़े जाने की योजना से आशंकित हैं.
धारावी में रहने वाले लोगों का कहना है कि अधिकारियों ने प्रस्तावित योजना से प्रभावित होने वाले लोगों की संख्या का सही आकलन नहीं किया है.
स्वयंसेवी संगठनों के मुताबिक़ अगर उनके घर उजाड़ दिए गए तो हज़ारों लोगों के सामने रोजी-रोटी का संकट पैदा हो जाएगा.
उन्होंने चेतावनी दी है कि अगर सरकार पूरी योजना के बारे में उनसे सलाह-मशविरा नहीं करती है तो वे बस्ती से सटी रेलवे लाइन और हवाई अड्डे के रनवे को जाम कर देंगे.
योजना
सरकारी विज्ञापन के मुताबिक पूरी योजना पर 93 अरब रूपए खर्च होंगे और इसे सात वर्षों के भीतर पूरा किया जाएगा.
ये रक़म डेवलपर को ही देनी होगी जिसे रिहायशी और व्यावसायिक गतिविधियों के लिए अतिरिक्त ज़मीन दी जाएगी.
सरकारी आँकड़ों के मुताबिक़ धारावी में रहने वाले 57 हज़ार परिवारों को नए बने फ़्लैटों में स्थानांतरित किया जाएगा लेकिन कई संगठनों का कहना है कि वहाँ रहने वाले परिवारों की संख्या इससे कहीं अधिक है.
विज्ञापन के मुताबिक़ नई परियोजना के तहत धारावी में स्कूल, पार्क और अस्पताल भी बनाए जाएंगे।
मुंबई की धारावी एशिया की सबसे बड़ी झुग्गी बस्ती है.
धारीदार टीन की चादरों की छत वाली झोपड़ियों में लगभग छह लाख लोग रहते हैं.
लेकिन इसी बस्ती में जो शिल्प-उद्योग विकसित हो गया है उसकी बदौलत साल भर में कोई एक अरब डॉलर यानी लगभग 45 अरब रुपयों का व्यवसाय होता है.
इस बस्ती में चमड़े की चीज़ें, गहने और मिट्टी के सजावटी बर्तन तैयार किए जाते हैं और फिर पश्चिमी देशों के सभी प्रमुख शहरों में बिकने को भेज दिए जाते हैं.
अब अधिकारी चाहते हैं कि धारावी की व्यावसायिक संभावनाओं को ध्यान में रखते हुए इसे एशिया के सबसे अच्छे इलाक़े में तब्दील कर दिया जाए.
इसके लिए एक बड़ी योजना बनाई गई है जिस पर 1.3 अरब डॉलर यानी कोई साठ अरब रुपए खर्च होने हैं.
सबसे अच्छी बस्ती?
धारावी के कई बच्चे कभी स्कूल नहीं गए.
धारावी एशिया का सबसे बड़ी झुग्गी बस्ती कहलाती है और हम ये लेबल हटाना चाहते हैं
सुरेश जोशी, हाउसिंग बोर्ड के प्रमुख लेकिन अब सरकार योजना बना रही है कि वहाँ स्कूल बनाए जाएँ और खेल के मैदान भी.
झोपड़ियों की जगह अच्छे घर बनाने की भी योजना है.
योजना है कि यहाँ ऐसे आधुनिक व्यावसायिक परिसर बना दिए जाएँ जिससे शिल्प-उद्योग को होने वाला लाभ तीन गुना हो जाए.
राज्य के हाउसिंग बोर्ड के प्रमुख सुरेश जोशी कहते हैं, ''धारावी एशिया का सबसे बड़ी झुग्गी बस्ती कहलाती है और हम ये लेबल हटाना चाहते हैं.''
उनका कहना है, ''हम धारावी को एशिया की सबसे अच्छी बस्ती बनाना चाहते हैं.''
क्या सोचते हैं लोग
सवाल यह है कि धारावी के लोग इस योजना के बारे में क्या सोचते हैं.
चमड़े के व्यापारी मलिक युसुफ़ कहते हैं कि उनका परिवार आज़ादी के पहले से वहाँ रहता है.
उनका ख़ुद का जन्म भी धारावी में ही हुआ.
हालांकि जिस झोपड़ी में वे रहते हैं वह उनके दस सदस्य वाले परिवार के लिए बहुत छोटा है.
अब वे पाँच हज़ार छह सौ करोड़ रुपया लगाने की बात कर रहे हैं. पता नहीं ये पैसा बस्ती के विकास में लगेगा या नहीं, पैसा हम तक पहुँचेगा या राजनीतिकों के पास
राजू चौहान, धारावीवासी
लेकिन यदि सरकार की योजना साकार होती है तो युसुफ़ के परिवार का भविष्य ऐसा हो जाएगा जिसकी कल्पना उनके पुरखों ने तो कम से कम नहीं की होगी.
लेकिन इस योजना से सब लोग युसुफ़ की तरह सहमत और ख़ुश नहीं हैं.
बहुत से लोग मानते हैं कि इस योजना का संबंध कुछ हफ़्तों बाद होने वाले चुनावों से है.
राजू चौहान मिट्टी के बर्तन बनाने का काम करते हैं.
उनका कहना है कि उन्होंने राजनेताओं के बड़े-बड़े वादों को देखा-सुना है.
वे कहते हैं, ''इससे पहले धारावी के लिए सौ करोड़ रुपए रखे गए थे लेकिन वे कहाँ गए पता ही नहीं चला.''
राजू चौहान कहते हैं, ''अब वे पाँच हज़ार छह सौ करोड़ रुपया लगाने की बात कर रहे हैं. पता नहीं ये पैसा बस्ती के विकास में लगेगा या नहीं, पैसा हम तक पहुँचेगा या राजनेताओं के पास.''
लेकिन सुरेश जोशी कहते हैं कि इस योजना का चुनावों से कोई लेना देना नहीं है.
वे कहते हैं, ''यह योजना एक-सवा एक साल से बन रही है. दरअसल इतनी बड़ी योजना पर काम करने से पहले हम चाहते थे कि इस पर बड़े पैमाने पर विचार विमर्श कर लिया जाए.''
प्राथमिकता
लेकिन धारावी के लोग इसे इतनी आसानी से मानते दिखते नहीं हैं.
मुंबई की जनसंख्या का बड़ा हिस्सा झुग्गियों में ही गुज़ारा करता हैस्थानीय पत्रकार कल्पना शर्मा ने कुछ सालों पहले धारावी की समस्याओं के बारे में लिखना शुरु किया था. योजना के समय को लेकर उनको भी शक होता है.
उनका कहना है कि धारावी मुंबई की सबसे ख़राब झुग्गी बस्ती नहीं है.
वे कहती हैं कि मुंबई के लगभग 40 प्रतिशत लोग अस्थाई घरों में रहते हैं.
कल्पना शर्मा कहती हैं, ''यदि आप मुंबई की झुग्गी बस्तियों को ठीक करना चाहते हैं तो आपको प्राथमिकता तय करनी होगी. और यदि आप मुझे प्राथमिकता तय करने के लिए कहें तो धारावी का नंबर बहुत बाद में आएगा.''
लेकिन सरकार इस बात का विरोध करती है.
सरकार कहती है कि धारावी पर ध्यान देने के लिए राजनीतिक दलों में सहमति बनी हुई है.
ये पता नहीं कि धारावी एशिया की झुग्गी बस्ती बनी रहेगी या फिर सबसे अच्छा व्यावसायिक केंद्र बन जाएगी.
फिलहाल तो वह काम में लगी हुई है।
बंगलौर की झोंपड़ पट्टियों में रहने वाले कुछ लोग अपनी समस्याओं और अपने अधिकारी को लेकर आवाज़ बुलंद करने के लिए पत्रिका निकाल रहे हैं.
"स्लम जगुथा" नाम की कन्नड़ भाषा में यह पत्रिका कर्नाटक में झोंपड़ पट्टियों में रहने वालों के बीच संपर्क का एक माध्यम है.
यह पत्रिकार झुग्गी-झोंपड़ियों में रहने वाले लोगों की की समस्याओं के साथ-साथ उनके अधिकारों के बारे में भी जानकारी देती है. इस पत्रिका से जुड़े अधिकांश लोग दलित हैं.
"स्लम जगुथा" का प्रकाशन चार सालों से हो रहा है और वेबसाइट भी शुरू करने का प्रस्ताव है.
झोंपड़-पट्टी के लोगों द्वारा एक अलग पत्रिका निकालने को सही बताते हैं इसके संपादक अरूल इज़ैक सेल्वा.
वे कहते हैं, "ग़रीबों की समस्याओं की चर्चा मीडिया नहीं करता. अगर कोई ऐसी पत्रिका है भी तो वो अंग्रेज़ी में होती है और उसे निकालने वाले उच्च वर्ग से आते हैं."
सेल्वा के साथ इस पत्रिका को निकालने में जुड़े राजेंद्र, पुष्पलता, सुरेश और दयानंद सभी बंगलौर के किसी न किसी स्लम में रहते हैं.
इन सबका मानना है कि "स्लम जगुथा" में उन्हें नया अस्तित्व दिया है और इससे लोगों में जागरूकता बढ़ी है और उनका आत्मविश्वास भी.
पुष्पलता कहती है कि वे जिन झोंपड़ियों में रहती हैं वहाँ की हालत कुछ समय पहले तक बहुत ख़राब़ थी.
लेकिन अपनी पत्रिका में लगातार लिखने के बाद प्रशासन ने कुछ क़दम उठाए और लोग भी जागरूक हुए.
"स्लम जगुथा" की नज़र समाज में हो रहे बदलावों पर भी रहती है. "टीचर्स डे" जैसे आयोजनों पर किस तरह की रिपोर्ट छपनी चाहिए उस पर इस समय चर्चा चल रही है.
अपने सितंबर के अंक में यह पत्रिका "टीचर्स डे" स्लम में रह रहे लोगों के लिए क्या महत्व रखता है उस पर चर्चा करेगी.
नाराज़गी
25 वर्षीय दयानंद ने पत्रकारिता में डिग्री प्राप्त की है. सम्पादक सेल्वा की उनसे मुलाक़ात एक झोंपड़-पट्टी में हुई और सेल्वा ने उन्हें अपनी टीम में शामिल किया.
पत्रिका में काम करने वाले अधिकांश लोग दलित हैं
दयानंद समाज के उन लोगों से बेहद नाराज़ हैं जो उन लोगों की समस्याओं पर ध्यान नहीं देते. उनकी नाराज़गी अख़बार और टीवी चैनलों पर भी है.
दयानंद के साथ-साथ उनके कई सहयोगी भी ये मानते हैं कि समाज में एक वर्ग विशेष पर अधिक ध्यान दिया जाता है.
यह पत्रिका निकालने के लिए कोई पैसा नहीं लेता. पत्रिका शुरू करने के समय कुछ लोगों ने चंदा दिया था जिसे बैंक में रखा गया है.
बंगलौर की एक स्वयंसेवी संस्था विधायकों और सरकारी अधिकारियों में इस पत्रिका को बाँटने के लिए 1000 पत्रिकाएं हर महीने ख़रीदती है.
और बाक़ी पाठकों के लिए सालाना 50 रूपए में यह पत्रिका उनके घर पहुंच जाती है.
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