मसीहा, दलित उन्नायक, दलित मुक्ति के अग्रदूत, डॉक्टर साहेब, बाबा साहेब... ऐसी कितनी ही संज्ञाओं से बाबा साहेब अंबेडकर को याद किया जाता है. भारत में दलित मुक्ति के आंदोलन में अंबेडकर जी का जो योगदान रहा है, वो विशेष महत्व रखता है.
भीमराव रामजी अंबेडकर का जन्म 14 अप्रैल 1891 को मध्यप्रदेश के महू में हुआ था. माता भीमाबाई साकपाल और पिता रामजी की वो 14वीं संतान थे. दादा और पिता के ब्रिटिश सेना में होने के चलते उनकी प्राथमिक शिक्षा सैन्यकर्मियों के बच्चों के लिए बने विशेष स्कूल में हुई. लेकिन आगे का रास्ता आसान नहीं था. सेवानिवृत्ति के बाद जब उनके पिता सतारा (महाराष्ट्र) में आकर बसे तो स्थानीय स्कूल में उन्हें जातिगत भेदभाव का सामना करना पड़ा. पैतृक गाँव अंबावाड़े (रत्नागिरी) से ही उनके नाम के साथ अंबेडकर जुड़ गया. कक्षा में एक कोने में अलग बैठने और शिक्षकों द्वारा उनकी किताबें तक न छूने जैसे हालातों से जूझते हुए उन्होंने वर्ष 1907 में बॉम्बे विश्वविद्यालय से मैट्रिकुलेशन की परीक्षा पास की. वर्ष 1906 में नौ वर्षिया रमाबाई से विवाह.आगे की पढ़ाई एलिफिंस्टन कॉलेज में की. वर्ष 1912 में राजनीति विज्ञान और अर्थशास्त्र से स्नातक होने के बाद उन्हें बड़ौदा में नौकरी मिल गई. वर्ष 1913 में पिता के देहांत के बाद गायकवाड़ के महाराजा ने उन्हें छात्रवृत्ति देकर आगे की पढ़ाई के लिए अमरीका भेजा. कोलंबिया यूनिवर्सिटी से एमए करने के बाद वर्ष 1916 में पीएचडी की उपाधि हासिल की.आगे की पढ़ाई के लिए वो लंदन रवाना तो हुए लेकिन गायकवाड़ के महाराजा ने छात्रवृत्ति रोक कर उन्हें वापस बुला लिया.
राजनीतिकजीवन
महाराजा ने उन्हें अपना राजनीतिक सचिव तो बना लिया, लेकिन महार होने के चलते कोई उनका आदेश नहीं मानता था. अंबेडकर वर्ष 1917 के आखिर में बंबई लौट आए और 31 जनवरी 1920 को 'मूकनायक' नाम का एक पाक्षिक अख़बार निकालना शुरु किया. इस दौरान उन्होंने बंबई के साइदेनहम कॉलेज ऑफ कॉमर्स एण्ड इकॉनॉमिक्स में अध्यापन भी किया. लेकिन उच्च शिक्षा की ललक उन्हें रोक नहीं पाई और कुछ पैसे इकट्ठा करने के बाद वो वापस लंदन चले गए. वहाँ से विज्ञान में डॉक्टरेट और बैरिस्टरी हासिल कर वह भारत लौटे. जुलाई 1924 में 'बहिष्कृत हितकारिणी सभा' की स्थापना की. अछूतों को सार्वजनिक तालाबों से पानी भरने का अधिकार दिलाने के लिए 1927 में मुंबई के नज़दीक कोलाबा के चौदार तालाब तक उन्होंने महाड़ पदयात्रा का नेतृत्त्व किया और वहीं 'मनुस्मृति' की प्रतियाँ भी जलाई. वर्ष 1929 में अंबेडकर ने साइमन कमीशन का समर्थन करने जैसा विवादास्पद निर्णय लिया. काँग्रेस ने इस आयोग का बहिष्कार कर संविधान का एक अलग ड्राफ्ट तैयार किया था जिसमें शोषित वर्गों के लिए प्रावधान नहीं होने के चलते अंबेडकर को उनके प्रति संदेह पैदा हो गया.
24 दिसम्बर 1932 को अंबेडकर और महात्मा गाँधी के बीच पूना पैक्ट हुआ. इस पैक्ट में अलग निर्वाचक मंडल के स्थान पर क्षेत्रीय और केंद्रीय विधानसभाओं में आरक्षित सीट जैसे विशेष प्रावधान किए गए. अंबेडकर ने लंदन में हुए तीनों गोलमेज सम्मेलनों में भाग लिया और अछूतों के कल्याण की ज़ोरदार माँग उठाई.वर्ष 1935 में वो गवर्नमेंट लॉ कॉलेज के प्रिंसिपल नियुक्त हुए और इस पद पर दो साल तक रहे.अगस्त 1936 में उन्होंने 'इन्डिपेन्डेंट लेबर पार्टी' गठित की और 1937 में हुए बंबई विधानसभा के चुनावों में इस पार्टी ने 15 सीटें जीतीं.
महाराजा ने उन्हें अपना राजनीतिक सचिव तो बना लिया, लेकिन महार होने के चलते कोई उनका आदेश नहीं मानता था. अंबेडकर वर्ष 1917 के आखिर में बंबई लौट आए और 31 जनवरी 1920 को 'मूकनायक' नाम का एक पाक्षिक अख़बार निकालना शुरु किया. इस दौरान उन्होंने बंबई के साइदेनहम कॉलेज ऑफ कॉमर्स एण्ड इकॉनॉमिक्स में अध्यापन भी किया. लेकिन उच्च शिक्षा की ललक उन्हें रोक नहीं पाई और कुछ पैसे इकट्ठा करने के बाद वो वापस लंदन चले गए. वहाँ से विज्ञान में डॉक्टरेट और बैरिस्टरी हासिल कर वह भारत लौटे. जुलाई 1924 में 'बहिष्कृत हितकारिणी सभा' की स्थापना की. अछूतों को सार्वजनिक तालाबों से पानी भरने का अधिकार दिलाने के लिए 1927 में मुंबई के नज़दीक कोलाबा के चौदार तालाब तक उन्होंने महाड़ पदयात्रा का नेतृत्त्व किया और वहीं 'मनुस्मृति' की प्रतियाँ भी जलाई. वर्ष 1929 में अंबेडकर ने साइमन कमीशन का समर्थन करने जैसा विवादास्पद निर्णय लिया. काँग्रेस ने इस आयोग का बहिष्कार कर संविधान का एक अलग ड्राफ्ट तैयार किया था जिसमें शोषित वर्गों के लिए प्रावधान नहीं होने के चलते अंबेडकर को उनके प्रति संदेह पैदा हो गया.
24 दिसम्बर 1932 को अंबेडकर और महात्मा गाँधी के बीच पूना पैक्ट हुआ. इस पैक्ट में अलग निर्वाचक मंडल के स्थान पर क्षेत्रीय और केंद्रीय विधानसभाओं में आरक्षित सीट जैसे विशेष प्रावधान किए गए. अंबेडकर ने लंदन में हुए तीनों गोलमेज सम्मेलनों में भाग लिया और अछूतों के कल्याण की ज़ोरदार माँग उठाई.वर्ष 1935 में वो गवर्नमेंट लॉ कॉलेज के प्रिंसिपल नियुक्त हुए और इस पद पर दो साल तक रहे.अगस्त 1936 में उन्होंने 'इन्डिपेन्डेंट लेबर पार्टी' गठित की और 1937 में हुए बंबई विधानसभा के चुनावों में इस पार्टी ने 15 सीटें जीतीं.
आजाद भारत में
वर्ष 1947 में भारत के आज़ाद होने के बाद वो बंगाल से संविधान सभा के लिए सदस्य चुने गए और जवाहरलाल नेहरु ने उन्हें अपने मंत्रिमंडल में क़ानून मंत्री बनने के लिए आमंत्रित किया. वे संविधान सभा की प्रारूप समिति के सभापति चुने गए और हिन्दू क़ानूनों को संहिताबद्ध करने के लिए अक्टूबर 1948 में उन्होंने संविधान सभा में हिन्दू संहिता विधेयक पेश किया. विधेयक पर काँग्रेस के भीतर भारी मतभेद होने के कारण पहले इसे सितंबर 1951 तक टाल दिया गया, लेकिन बाद में जब इसमें काँट-छाँट की गई तो व्यथित अंबेडकर ने क़ानून मंत्री का पद छोड़ दिया. बाद में स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में 1952 में वो लोकसभा का चुनाव हार गए लेकिन अपनी मृत्यु के समय तक वो राज्यसभा के सदस्य बने रहे.14 अक्टूबर 1956 को उन्होंने अपने कई अनुयाइयों के साथ बौद्ध धर्म अपनाया.
कृतित्व
1916 में शोध निबंध ' दी इवोल्यूशन ऑफ ब्रिटिश फिनांश इन इण्डिया' के नाम से पुस्तक के रूप में प्रकाशित.हालाँकि पहली पुस्तक 'कास्ट्स इन इण्डियाः देयर मैकेनिज्म, जेनेसिस एण्ड डेवेलपमेंट इन इण्डिया' थी.1923 में शोध पत्र ' द प्रॉब्लम ऑफ़ रुपी' पूरा किया, जिसपर लंदन यूनिवर्सिटी ने डॉक्टरेट ऑफ साइंस यानी डीलिट की उपाधि से नवाज़ा.न्यूयॉर्क में लिखे शोध पत्र पर 1937 में पुस्तक 'दि इनहेलेशन ऑफ़ कास्ट' प्रकाशित.1941 से 1945 के बीच कई विवादास्पद किताबें और पर्चे प्रकाशित. इनमें से प्रमुख थे- 'थॉट्स ऑन पाकिस्तान' (इसमें उन्होंने मुस्लिम लीग के रवैये की आलोचना की), 'व्हाट गाँधी एण्ड काँग्रेस हैव डन टू द अनटचेबल्स' (इसमें उन्होंने गाँधी और काँग्रेस के दोहरे रवैये की आलोचना की). 'हू वर द शूद्राज?' में उन्होंने शूद्रों को अछूतों से अलग बताया.
1948 में पुस्तक ' द अनटचेबल्सः ए थिसिस ऑन द ऑरिजिन्स ऑफ़ अनटचेबिलिटी' में हिन्दू धर्म की विसंगतियों की कड़ी आलोचना की.1956 में ' द बुद्धा एण्ड हिज धम्मा' को अंतिम रूप दिया, लेकिन यह उनके मरणोपरांत ही प्रकाशित हो सकी.आख़िरी पुस्तक ' द बुद्धा ऑर कार्ल मार्क्स' थी. जिसकी पाण्डुलिपी को उन्होंने अपनी मृत्यु से चार दिन पहले ही अंतिम रूप दिया था. 1990 में उन्हें मरणोपरांत भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से सम्मानित किया गया.
मृत्यु
06 दिसंबर, 1956. (उनके अनुयायी उनकी मृत्यु को महापरिनिर्वाण के रूप में याद करते हैं.)
कांशीराम और उनकी राजनीति
काश! कांशीराम थोड़ा और जी लेते. इसमें और कुछ नहीं तो उत्तर प्रदेश में पार्टी का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन जरूर देख लेते. बीमारी वाली अवधि में भी अगर वे सक्रिय रहे होते तो उत्तर प्रदेश ही नहीं अपनी पूरी राजनीति को थोड़ा और मजबूत करते.ऐसी कामनाओं और चाहों का होना यह बताता है कि कांशीराम और उनकी राजनीति की प्रासंगिकता अभी बाकी है और उनके जाने से समाज का, खासकर दलित समाज का काफी नुकसान हो गया है.अकेले दम पर और आरक्षण के ज़रिए निकले दलित अधिकारियों-कर्मचारियों की थोड़ी सी मदद से उन्होंने जो मशाल जलाई उसने मुल्क की राजनीति में भारी बदलाव ला दिया है. लेकिन जाहिर तौर पर उनका मिशन अधूरा है और अगर इसे ढंग से आगे नहीं बढ़ाया गया तो यह बड़ा नुकसान होगा.कांशीराम ने सबसे बड़ा काम तो मुल्क में और खास तौर से हिंदीभाषी प्रदेशों में दलित समाज में प्राण फूंकने का किया है.
उपलब्धियाँ
हजारों साल से दबा यह समाज आज न सिर्फ मुख्यधारा में आया है बल्कि उत्तर प्रदेश जैसे सबसे महत्वपूर्ण राजनीतिक प्रांत के शासन की बागडोर तीन-तीन बार एक दलित महिला के हाथ में आई है.दलितों में कांशीराम और बसपा के लिए जो ललक और प्रेम दिखता है वह विलक्षण है. बसपा के नेतृत्व की अगली चुनौती इन आकांक्षाओं को राजनीतिक हथियार में बदलकर उत्तर प्रदेश जैसी स्थिति बाक़ी राज्यों में करने की है. यह काम मुश्किल है पर कांशीराम का उदाहरण आश्वस्त भी करता है कि ईमानदार कोशिश हो तो यह असंभव नहीं है.
कांशीराम और उनके आंदोलन की यह उपलब्धि कई मायनों में तात्कालिक या अस्थाई किस्म की है. उनकी असली उपलब्धि है दलित समाज के लोगों के बीच स्वाभिमान और आत्मविश्वास जगाना. बाबा साहब तो महानायक थे ही. बसपा आंदोलन ने झलकारी बाई और संभाजी महाराज जैसे अपने नए नायक खड़े किए. उनके ऐतिहासिक योगदान को स्पष्ट किया. उनके अपने आंदोलन में लीडर भी अपनी जाति या अपने पुरखों का नाम करते हैं. इस धारा को इसी सोच में कौन आगे बढ़ाएगा? कांशीराम ने अपने लक्ष्यों को पाने के लिए समझौते किए, पर लक्ष्य कभी ओझल नहीं हुए.
नया नेतृत्व
बसपा के अब के नेतृत्व ने भी अभी तक कोई बड़ी चूक नहीं की है, पर उस पर कांशीराम जैसा भरोसा नहीं होता. इस भरोसे पर खरा उतरना भी नए नेतृत्व की चुनौती होगी. कांशीराम की राजनीति की एक और बड़ी खूबी यह है कि उसमें बाहर से थोपा हु्आ कुछ भी नहीं है. इस पर अमेरिकी अश्वेत आंदोलन या बाहरी राजनीतिक दर्शनों का ज़्यादा असर नहीं था. उनका अपना जीवन भी न तो अभाव दिखाने वाला था न ब्राह्मणवादी नेतृत्व की विलासिता की कार्बन कापी वाला, दलित नेतृत्व के लिए उनके जीवन जीने का ढंग भी एक चुनौती बना रहेगा. वे बीते दो-तीन साल से बीमार थे. बसपा बनाने से लेकर अब तक की मात्र दो दशक की उनकी राजनीति और उपलब्धियाँ भी सिर्फ दलित नेताओं के लिए ही नहीं सबके लिए चुनौती रहेगी. उन लोगों के लिए और ज़्यादा जो दशकों से मई दिवस, रूसी क्रांति दिवस पर रैलियाँ निकालने का काम, गाँधी और नेहरू का नाम भुनाने या फिर राम का नाम लेकर सत्ता हथियाने के खेल में लगे रहे हैं. आज़ाद भारत के सभी नेताओं की तुलना में अगर कांशीराम 19 नहीं ठहरते तो उनकी गैर मौजूदगी जाहिर तौर पर सबके लिए नुकसानदेह है और उनका नाम और काम समाज राजनीति में नया करने वाले हर आदमी के लिए प्रेरणा का स्रोत बना रहेगा.
पंजाब में जन्मे और महाराष्ट्र में नौकरी करने वाले कांशीराम ने अपनी राजनीति का अखाड़ा उत्तर प्रदेश को बनाया. पिछले 20 वर्षों में कांशीराम ने उत्तर प्रदेश और उसके माध्यम से भारत की राजनीति में उथल-पुथल मचा दी.
कांशीराम की राजनीति शुरू हुई ब्राह्मणवाद के विरोध से लेकिन सत्ता सोपान पर पार्टी को चढ़ाने के लिए उन्होंने किसी से समझौता करने से परहेज़ नहीं किया, न ही समझौता तोड़ने में संकोच किया.उनकी राजनीति का आधार बने सरकारी सेवाओं में काम करने वाले दलित अधिकारी, वोट बैंक बढ़ाने के लिए उन्होंने अपनी पार्टी को अति पिछड़ों और मुसलमानों के गरीब तबक़े से जोड़ा.कांशीराम की इस राजनीति का पहला शिकार बनी काँग्रेस पार्टी. कांशीराम के ख़तरे को भाँपकर 1986 में दलित अफ़सरों को वीर बहादुर सिंह की सरकार ने महत्वपूर्ण पदों पर बिठाया लेकिन इन अधिकारियों ने अपनी प्रतिबद्धता नहीं बदली और तन-मन-धन से बीएसपी का ही साथ दिया.इसका परिणाम ये हुआ कि दलितों और मुसलमानों का समर्थन खोकर काँग्रेस पार्टी सत्ता से 1989 में बाहर हो गई जिसके बाद आज तक उसकी वापसी नहीं हो सकी.
तेज प्रगति
1984 में गठित बहुजन समाज पार्टी पाँच वर्ष बाद 1989 में दर्जन भर विधायकों के साथ विधानसभा में पहुँची. इसके बाद कांशीराम ने इलाहाबाद से वीपी सिंह के ख़िलाफ़ और अमेठी से राजीव गाँधी के ख़िलाफ़ चुनाव लड़ा लेकिन नाकाम रहे.
मुलायम सिंह यादव की मदद से वे इटावा से लोकसभा में पहुँचे और 1992 में उन्होंने नारा दिया--'मिले मुलायम कांशीराम, हवा हो गए जयश्री राम.' बाबरी मस्जिद टूटी, विधानसभा चुनाव हुए और सपा-बसपा गठबंधन सरकार में आई, लेकिन कांशीराम चैन से कहाँ बैठने वाले थे.अपनी शिष्या मायावती को 'उत्तर प्रदेश की महारानी' बनवाने के लिए कांशीराम ने दो ब्राह्मण नेताओं--पीवी नरसिंह राव और अटल बिहारी वाजपेयी से साँठगाँठ करके मुलायम को मुख्यमंत्री की कुर्सी से उतार फेंका. मायावती मुख्यमंत्री बनीं.फिर भारतीय जनता पार्टी के साथ नई पारी खेलते-खेलते बहुजन समाज से सर्वसमाज की बातें शुरू हुईं लेकिन मायावती ने बीजेपी को भी गच्चा दे दिया, अगले चुनाव में कांग्रेस से तालमेल कर लिया.लेकिन इसका फ़ायदा बहुजन समाज पार्टी नहीं बल्कि काँग्रेस को हुआ. कांशीराम ने तय किया कि अगला चुनाव पार्टी अपने दम पर लड़ेगी.
अपनी कूटनीति से 2002 में उन्होंने मुलायम सिंह यादव को सत्ता में आने से रोकने के लिए एक बार फिर भारतीय जनता पार्टी से हाथ मिला लिया.अब तक मायावती का अपना क़द अपने गुरू कांशीराम से भी ऊँचा हो चुका था. कांशीराम की सेहत ख़राब रहने लगी थी. मायावती को लगा कि भाजपा के साथ मिलकर सरकार चलाना दीर्घकालिक राजनीतिक हित में नहीं है इसलिए वे सरकार से बाहर हो गईं.
मायावती बदली चाल
मायावती ने रणनीति बदली और सवर्ण बहुल पार्टियों की जगह सीधे सवर्ण जातियों के साथ गठबंधन बनाना शुरू किया. कांशीराम के साथियों की नाराज़गी से बचने के लिए उनके जीते जी लखनऊ में लाल बहादुर शास्त्री मार्ग पर अपनी और कांशीराम की प्रतिमाएँ स्थापित करके स्मारक बनवाया.ब्राह्मणवाद के विरोध पर बनी कांशीराम की पार्टी में एक ब्राह्मण सतीश मिश्र अब मायावती के दाहिने हाथ कहे जाते हैं. इसके बाद कांशीराम के अनुयायियों को आश्वस्त करने के लिए उन्होंने घोषणा की कि उनका उत्तराधिकारी दलित ही होगा.कांशीराम को मसीहा मानने वाले दलित समुदाय में कसमसाहट है. मायावती का सर्वण प्रेम वे पचा नहीं पा रहे हैं. कांशीराम के बाद दलित समुदाय मायावती से कितना जुड़ा रहता है इसका फ़ैसला अगले विधानसभा चुनाव में हो जाएगा.
वर्ष 1995 में जब मायावती पहली बार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनीं थी तो तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव ने इसे 'लोकतंत्र का चमत्कार' कहा था. 'लोकतंत्र के उस चमत्कार' के 12 साल बाद एक बार फिर सत्ता मायवाती के पास आई हैं और चौथी बार ऐसा होगा जब मायावती मुख्यमंत्री पद की शपथ लेंगी. दलित राजनीति के नेतृत्व करने वाली मायावती ने इस बार न सिर्फ़ दलितों और मुसलमानों की सहानुभूति हासिल की बल्कि सवर्णों को भी साथ लिया और उनकी ये रणनीति ख़ूब चली. एक दशक से अधिक समय बाद ऐसा हुआ है कि टुकड़ों में बँटे उत्तर प्रदेश में किसी एक पार्टी ने अपने दम पर बहुमत हासिल किया है. कांशीराम के साथ 1980 के दशक में बहुजन समाज की राजनीति करने वाली मायावती का यहाँ तक का सफ़र न सिर्फ़ उतार-चढ़ाव से भरा रहा है बल्कि भारतीय राजनीति में उनके अक्खड़पन और बिंदास छवि का भी गवाह रहा है.
कभी स्कूल में शिक्षिका रहीं मायावती ने सिविल सर्विसेज़ में जाने की सोची थी लेकिन उनका झुकाव हुआ कांशीराम की ओर जिन्होंने 14 अप्रैल 1984 को बहुजन समाज पार्टी का गठन किया था.पार्टी कार्यकर्ताओं में 'बहनजी' के नाम से मशहूर मायावती का राजनीतिक करियर झटकों के साथ शुरू हुआ. 1985 में वे पहली बार लोकसभा उपचुनाव में खड़ी हुई लेकिन हार गईं. वर्ष 1987 में उन्होंने हरिद्वार से अपनी क़िस्मत आज़माई लेकिन नतीजा उनके पक्ष में नहीं रहा. लेकिन उनकी पराजय का दौर ज़्यादा समय नहीं टिका. 1989 के चुनाव में उन्होंने बिजनौर से जीत हासिल की और फिर उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा.
पहली बार 1995 में वे उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनीं. पहले समाजवादी पार्टी के साथ सरकार बनाने वाली मायवाती रुठीं तो फिर भारतीय जनता पार्टी का दामन थामा और 3 जून 1995 को पहली बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ली. यह पहला मौक़ा था जब कोई दलित महिला उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनी थी.प्रभु दयाल और रामरती की नौ संतानों में से दूसरी मायावती का जन्म 15 जनवरी 1956 को उत्तर प्रदेश के ग़ाज़ियाबाद ज़िले के बादलपुर गाँव में हुआ था.
दिल्ली विश्वविद्यालय से क़ानून और मेरठ विश्वविद्यालय से बीएड की शिक्षा प्राप्त करने वाली मायावती को राजनीति की दीक्षा बहुजन समाज पार्टी नेता कांशीराम से मिली.दोनों पहली बार 1984 में मिले थे. तब मायावती दिल्ली प्रशासन के एक प्राथमिक विद्यालय में शिक्षिका थीं और दिल्ली के इंद्रपुरी इलाक़े की एक झुग्गी में रहती थीं.कांशीराम ने मायावती के तेवरों को धार दी और इस तरह वे दलित अधिकारों की एक मुखर प्रवक्ता के रूप में सामने आईं. थोड़े ही दिनों में वे बहुजन समाज पार्टी में दूसरी सबसे महत्वपूर्ण शख़्सियत बन गईं.
वर्ष 1995 में उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री की कमान संभालने के बाद मायावती पर सिद्धांतविहीन राजनीति का आरोप लगा. इसलिए कि उन्होंने भारतीय जनता पार्टी के साथ समझौता किया.लेकिन मायावती ने स्पष्ट किया कि वे दलितों को सत्ता में भागीदारी दिलाने के लिए कुछ भी करेंगी. भारतीय जनता पार्टी से उन्होंने एक नहीं दो-दो बार समझौता किया. समझौता हुआ और टूटा भी. मायावती का मोह बना और मोह टूटा भी.लेकिन उनकी राजनीति की आँच कम नहीं हुई. एक बार उत्तर प्रदेश की सत्ता में आने के बाद मायावती का राज्य की राजनीति और केंद्र की राजनीति में दख़ल कम नहीं हुआ.
राजनीति के उस दौर में मायावती की छवि सवर्णों की धुर विरोधी की रही. उस दौरान उनकी पार्टी का प्रमुख नारा था- तिलक, तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार.कांशीराम के सक्रिय राजनीति से अलग होने के बाद रणनीति बनाने के मामले में भी मायावती अकेले पड़ गई. गाहे-बगाहे जीते हुए पार्टी विधायकों के टूट कर विरोधी ख़ेमे में जाने से भी मायावती को काफ़ी नुक़सान हुआ.तीन बार मुख्यमंत्री बनीं मायावती का कार्यकाल डेढ़ साल का भी नहीं रहा था. ऊपर से भ्रष्टाचार और पार्टी चंदा के नाम पर अपने विधायकों से पैसा उगाही जैसे आरोपों से मायावती का ग्राफ़ तेज़ी से नीचे गिरा.
वर्ष 2002 के विधानसभा चुनाव में मायावती ने भाँप लिया था कि सिर्फ़ दलितों की राजनीति के बल पर वे सत्ता का स्वाद ज़्यादा दिनों तक नहीं चख सकती.उस साल उन्होंने सवर्णों को रिझाने की कोशिश की और नारा दिया- हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा-विष्णु-महेश है. बीजेपी के साथ तालमेल किया और सरकार बनाने में सफल रहीं.लेकिन तीन मई 2002 से 29 अगस्त 2003 तक सत्ता में रहने के बाद उत्तर प्रदेश की राजनीति में फिर भूचाल आया. मायावती की सरकार गई, राष्ट्रपति शासन लगा, कल्याण सिंह मुख्यमंत्री बने लेकिन फिर विधायकों की संख्या में बाज़ी मारी मुलायम सिंह ने और सरकार बनीं.
पद छोड़ने के बाद मायावती के ख़िलाफ़ आरोपों का पिटारा खुला. भ्रष्टाचार के मामले में उनके घर छापे पड़े, संपत्ति की जाँच शुरू हुई और ताज कोरीडोर मामले में सुप्रीम कोर्ट ने जाँच का आदेश दिया.पार्टी के विधायक टूट कर समाजवादी पार्टी के साथ चले गए. मायावती का ग्राफ़ फिर नीचे गिरा. इस साल विधानसभा चुनाव में मायावती ने सवर्णों को साथ लेकर चलने की रणनीति को और विस्तार दिया.वे खुल कर सवर्णों के साथ आईं, रैली की और बड़ी संख्या में उन्हें टिकट भी दिया. नतीजा सामने हैं- मायावती विजेता बन कर सामने आई हैं और इस बार लगता है कि अपने दम पर वो सरकार बनाएँगी और शायद पाँच साल का कार्यकाल भी पूरा करेंगी.
वर्ष 2002 के विधानसभा चुनाव में मायावती ने भाँप लिया था कि सिर्फ़ दलितों की राजनीति के बल पर वे सत्ता का स्वाद ज़्यादा दिनों तक नहीं चख सकती.उस साल उन्होंने सवर्णों को रिझाने की कोशिश की और नारा दिया- हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा-विष्णु-महेश है. बीजेपी के साथ तालमेल किया और सरकार बनाने में सफल रहीं. लेकिन तीन मई 2002 से 29 अगस्त 2003 तक सत्ता में रहने के बाद उत्तर प्रदेश की राजनीति में फिर भूचाल आया. मायावती की सरकार गई, राष्ट्रपति शासन लगा, कल्याण सिंह मुख्यमंत्री बने लेकिन फिर विधायकों की संख्या में बाज़ी मारी मुलायम सिंह ने और सरकार बनीं.
पद छोड़ने के बाद मायावती के ख़िलाफ़ आरोपों का पिटारा खुला. भ्रष्टाचार के मामले में उनके घर छापे पड़े, संपत्ति की जाँच शुरू हुई और ताज कोरीडोर मामले में सुप्रीम कोर्ट ने जाँच का आदेश दिया.पार्टी के विधायक टूट कर समाजवादी पार्टी के साथ चले गए. मायावती का ग्राफ़ फिर नीचे गिरा. इस साल विधानसभा चुनाव में मायावती ने सवर्णों को साथ लेकर चलने की रणनीति को और विस्तार दिया.वे खुल कर सवर्णों के साथ आईं, रैली की और बड़ी संख्या में उन्हें टिकट भी दिया. नतीजा सामने हैं- मायावती विजेता बन कर सामने आई हैं और इस बार लगता है कि अपने दम पर वो सरकार बनाएँगी और शायद पाँच साल का कार्यकाल भी पूरा करेंगी.
वर्ष 2002 के विधानसभा चुनाव में मायावती ने भाँप लिया था कि सिर्फ़ दलितों की राजनीति के बल पर वे सत्ता का स्वाद ज़्यादा दिनों तक नहीं चख सकती. उस साल उन्होंने सवर्णों को रिझाने की कोशिश की और नारा दिया- हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा-विष्णु-महेश है. बीजेपी के साथ तालमेल किया और सरकार बनाने में सफल रहीं. लेकिन तीन मई 2002 से 29 अगस्त 2003 तक सत्ता में रहने के बाद उत्तर प्रदेश की राजनीति में फिर भूचाल आया. मायावती की सरकार गई, राष्ट्रपति शासन लगा, कल्याण सिंह मुख्यमंत्री बने लेकिन फिर विधायकों की संख्या में बाज़ी मारी मुलायम सिंह ने और सरकार बनीं.
पद छोड़ने के बाद मायावती के ख़िलाफ़ आरोपों का पिटारा खुला. भ्रष्टाचार के मामले में उनके घर छापे पड़े, संपत्ति की जाँच शुरू हुई और ताज कोरीडोर मामले में सुप्रीम कोर्ट ने जाँच का आदेश दिया.पार्टी के विधायक टूट कर समाजवादी पार्टी के साथ चले गए. मायावती का ग्राफ़ फिर नीचे गिरा. इस साल विधानसभा चुनाव में मायावती ने सवर्णों को साथ लेकर चलने की रणनीति को और विस्तार दिया.वे खुल कर सवर्णों के साथ आईं, रैली की और बड़ी संख्या में उन्हें टिकट भी दिया. नतीजा सामने हैं- मायावती विजेता बन कर सामने आई हैं और इस बार लगता है कि अपने दम पर वो सरकार बनाएँगी और शायद पाँच साल का कार्यकाल भी पूरा करेंगी.
वर्ष 2002 के विधानसभा चुनाव में मायावती ने भाँप लिया था कि सिर्फ़ दलितों की राजनीति के बल पर वे सत्ता का स्वाद ज़्यादा दिनों तक नहीं चख सकती.उस साल उन्होंने सवर्णों को रिझाने की कोशिश की और नारा दिया- हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा-विष्णु-महेश है. बीजेपी के साथ तालमेल किया और सरकार बनाने में सफल रहीं.लेकिन तीन मई 2002 से 29 अगस्त 2003 तक सत्ता में रहने के बाद उत्तर प्रदेश की राजनीति में फिर भूचाल आया. मायावती की सरकार गई, राष्ट्रपति शासन लगा, कल्याण सिंह मुख्यमंत्री बने लेकिन फिर विधायकों की संख्या में बाज़ी मारी मुलायम सिंह ने और सरकार बनीं.
पद छोड़ने के बाद मायावती के ख़िलाफ़ आरोपों का पिटारा खुला. भ्रष्टाचार के मामले में उनके घर छापे पड़े, संपत्ति की जाँच शुरू हुई और ताज कोरीडोर मामले में सुप्रीम कोर्ट ने जाँच का आदेश दिया.पार्टी के विधायक टूट कर समाजवादी पार्टी के साथ चले गए. मायावती का ग्राफ़ फिर नीचे गिरा. इस साल विधानसभा चुनाव में मायावती ने सवर्णों को साथ लेकर चलने की रणनीति को और विस्तार दिया.वे खुल कर सवर्णों के साथ आईं, रैली की और बड़ी संख्या में उन्हें टिकट भी दिया. नतीजा सामने हैं- मायावती विजेता बन कर सामने आई हैं. पाँच साल का कार्यकाल भी पूरा करेंगी.
2 comments:
अच्छा तथ्यपरक लेख..
नेट पर इस तरह की जानकारी अभी कम है.. सम्भव हो तो अम्बेदकर के लेखों को भी छापें..हिन्दी में अभी वो नेट पर कहीं नहीं हैं..
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