Sunday 3 June 2007

धर्मांतरण

छठीं शताब्दी में जब हिन्दू धर्मं का घोर पतन हो चुका था तब बौद्ध धर्म और जैन धर्म ने जो सामाजिक और धार्मिक क्रान्ति का दौर शुरू किया था उसमें हिन्दू धर्मावलंबियों ने बड़ी तेजी से अपनी आस्था बदल ली थी। फलतः सनातन हिन्दू धर्म के आडम्बर और कर्मकांड से ऊबे लोगों ने अपेक्षाकृत प्रगतिशील बौद्ध धर्म को अपनाया। शंकराचार्य के प्रादुर्भाव तक हालत यह हो गयी थी कि अपने आडम्बर में डूबे हिन्दू धर्माचार्य किकर्तव्य विमूढ़ होकर सनातन हिन्दू समाज कि दुर्गति देखते रहे। आख़िर ऐसा क्यों हुआ ? क्यों हिन्दू समाज अपनी आस्था बदलने को मजबूर हुआ ? इन दोनों सवालों और वर्त्तमान भारत में दलितों के धर्मान्तरण पर उठे सवालों का शायद एक ही जवाब है।छठीं शताब्दी में हिदू समाज घोर कर्मकांड ,जातिवाद और उंच-नींच का भेदभाव ,धार्मिक अनुष्ठानों में अकारण बलि जैसे कर्मकांड से ऊब चुका था। ऐसे में बौद्ध धर्म के तर्कों ने उन्हें काफी प्रभावित किया। सदाचार अपनाकर और जति भेदभाव व कर्मकांड से दूर रहकर एक ऐसे मार्ग पर चलने का बौद्ध धर्म के प्रणेता गौतमबुद्ध ने उपदेश दिया। ही नहीं गौतमबुद्ध ने किसी पूजा व कर्मकांड को अपने धर्म में कोई जगह नही दीं । मगर आज का बौद्ध धर्म वैसा नहीं है। यह भी कर्मकांड से युक्त है। पतन इसका भी हुआ है।अब भी यह जति-पात से दूर सवर्ण अधिकारो से वंचित दलितों के लिए आकर्षण का केंद्र बना हुआ है। tab to jagatguru shankaracharya ne hindu samaj ko ubara tha. hindu samaj ka dharmantaran roka tha. us samaya bhi jagrook lagon ne bauddh dharm apnaya tha. itana hee nahee bauddh dharm ko rajkiya sanrakshan mila tha to aaj dharmantaran ko rajnaitik sanrakshan mila huaa hai. aaiye aaj ke dharmantaran ke karno ke awalokan karate hain. vartamaan aadhunik bharat mein bhee धर्मांतरण सबसे ज़्यादा वो जातियाँ कर रही हैं, जो जागरूक हैं और सामाजिक-आर्थिक रूप से कुछ तरक्की कर गईं हैं. मेरा मानना है कि दलितों का बौद्ध के रूप में धर्मांतरण उन्हें बरगलाकर या जबरन नहीं होता है. अधिकांश दलित सामाजिक और राजनीतिक वजहों से बौद्ध धर्म अपनाते हैं.
धर्मांतरण की ये प्रक्रिया राजनीतिक है, इससे कोई इनकार नहीं कर सकता, लेकिन इसकी अहम वजहें सामाजिक ही होती हैं. वर्ण या जाति व्यवस्था अब पहले जैसी नहीं रही. अन्य जातियों में भी वर्ण व्यवस्था में बदलाव का असर साफ़ देखा जा सकता है. दलितों की बात आती है तो कई स्थानों पर अस्पृश्यता का असर अब भी देखा जा सकता है. मुझे लगता है कि यही वजह है कि समाज में बेहतर स्थिति के लिए दलित धर्मांतरण का रुख़ करते हैं.
हालाँकि प्रत्येक राज्य में दलितों की स्थिति अलग-अलग है. मसलन दक्षिण भारत की स्थिति उत्तर से एकदम भिन्न है. दक्षिण के दलित जहाँ भूमिहीन रहे हैं, वहीं उत्तर भारत में दलितों के पास थोड़ी बहुत ज़मीन रही है.
भारत में कई राज्यों में दलितों की सामूहिक हत्या की घटनाएँ भी होती रहती हैं
यह बात सही है कि दलितों की स्थिति में लगातार सुधार हो रहा है, लेकिन कुछेक राज्यों मसलन बिहार और गुजरात में अब भी कई गाँव ऐसे हैं जहाँ आज भी दलितों का बहिष्कार होता है.
ये कहा जा सकता है कि जब तक गैरदलित, दलितों पर अत्याचार करते रहेंगे, तब तक धर्मांतरण जैसी चहल-पहल भी होती रहेगी.
जहाँ तक मुझे सूचना है महाराष्ट्र में महार और माला जाति अधिक धर्मांतरण कर रही है यानी जो दलित जातियाँ समाजिक, राजनीतिक और आर्थिक रूप से आगे बढ़ी हैं, धर्मांतरण का प्रतिशत उनमें अधिक है.
हालाँकि उत्तर प्रदेश में जाटव इसका अपवाद हैं. ये आर्थिक रूप से मजबूत और जागरूक होने के बावजूद धर्मांतरण नहीं कर रहे हैं.
होता ये है कि जब दूल्हे को घोड़े पर नहीं बैठने देने, बाजा नहीं बजाने देने जैसी घटनाएँ होती हैं तो दलितों में ये संदेश जाता है कि जब तक वे हिंदु व्यवस्था में बने रहेंगे, तब तक अस्पृश्यता से उन्हें मुक्ति नहीं मिलेगी.
जहाँ तक आदिवासियों के धर्मांतरण का सवाल है तो यह दलित धर्मांतरण से एकदम अलग है.
आदिवासी
आदिवासियों की अपनी अलग व्यवस्था और पहचान होती है. आदिवासियों का धर्मांतरण ईसाई धर्म में अधिक हो रहा है.
इसकी वजह ये भी है कि ऐसा प्रचार किया जाता है कि ईसाई बनने से उनके बच्चों को बेहतर शिक्षा और सुविधाएँ मिलेंगी.
हालाँकि धर्मांतरण की यह प्रक्रिया दोतरफा है. यानी कुछ आदिवासी ईसाई धर्म अपना रहा हैं तो कुछ लोग शुद्धिकरण के नाम पर ईसाई बने आदिवासियों को वापस हिंदु धर्म में ला रहे हैं.
छत्तीसगढ़, झारखंड, उड़ीसा, गुजरात में आदिवासियों के धर्मांतरण से सामाजिक टकराव भी बढ़ रहा है और कभी-कभी तो यह हिंसक रूप भी ले लेता है.
आदिवासियों की धर्मांतरण प्रक्रिया दलितों से भिन्न है.
जहाँ दलित सामूहिक तौर पर धर्मांतरण कर रहे हैं, वहीं आदिवासियों में ऐसा नहीं है।



मुंबई में huye धर्मांतरण कार्यक्रम में कई हज़ार दलितों और आदिवासियों ने बौद्ध धर्म अपना लिया. इसमें लगभग 35 हज़ार लोग शामिल हुए.
बाबा साहेब भीम राव अंबेडकर ने 50 वर्ष पहले बौद्ध धर्म अपनाया था और इसी के उपलक्ष्य में इस कार्यक्रम का आयोजन किया गया.
कार्यक्रम में सबसे ज़्यादा लोग महाराष्ट्र के थे और इनमें वंजारा समुदाय के लोगों की संख्या सबसे अधिक थी.
इस बात के कोई सबूत उपलब्ध नहीं हैं कि धर्मांतरण करने के बाद दलितों और आदिवासियों के राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन में कोई बदलाव आता है
आयोजकों ने पाँच लाख लोगों के पहुँचने का दावा किया था लेकिन भीड़ सिर्फ़ 30 से 35 हज़ार लोगों की थी जिनमें से कुछ हज़ार लोगों ने धर्मांतरण कराया.
हालाँकि मुख्य आयोजकों में से एक राहुल बोधी का दावा है कि एक लाख लोग धर्मांतरित हुए हैं.
इस कार्यक्रम में बौद्ध आध्यात्मिक गुरु दलाई लामा भी आने वाले थे लेकिन अस्वस्थ होने के कारण नहीं पहुँच सके.
राजनीति और समाज पर गहरी नज़र रखने वाले योगेंद्र यादव कहते हैं कि यह रस्मी घटना बन गई है. उनका कहना है, "इस बात के कोई सबूत उपलब्ध नहीं हैं कि धर्मांतरण करने के बाद दलितों और आदिवासियों के राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन में कोई बदलाव आता है."
वे कहते हैं, "यह बाबा साहेब अंबेडकर की शुरू की हुई परंपरा है जिसे हिंदू वर्ण व्यवस्था के प्रति अपना क्षोभ प्रकट करने के लिए दलित प्रतीकात्मक तौर पर इस्तेमाल करते रहे हैं लेकिन बहुजन समाज पार्टी जैसे दलित नेतृत्व ने अब इसे तिलांजलि दे दी है क्योंकि उन्हें इसका बहुत लाभ नहीं दिखता."
दलितों को इज्जत तभी मिलेगी जब वे मौजूदा सामाजिक वर्ण व्यवस्था से बाहर निकलेंगे. इसीलिए दलित-आदिवासी बौद्ध धर्म अपना रहे हैं
जस्टिस पार्टी के प्रमुख उदित राज धर्मांतरण को जायज ठहराते हुए कहते हैं, "दलितों को इज्जत तभी मिलेगी जब वे मौजूदा सामाजिक वर्ण व्यवस्था से बाहर निकलेंगे. इसीलिए दलित-आदिवासी बौद्ध धर्म अपना रहे हैं."
कुछ दक्षिणपंथी हिंदू संगठन इस तरह के धर्मांतरणों का विरोध करते रहे हैं.
धर्मांतरण करने वालों को उम्मीद है कि इसके ज़रिए वे उस जातिप्रथा से बाहर निकल सकेंगे जिसमें उन्हें सबसे निचले तबके का माना जाता है.
हालांकि सरकार ने दलितों और आदिवासियों को आरक्षण देने की व्यवस्था की है लेकिन इससे उनकी सामाजिक और आर्थिक स्थिति में बहुत सुधार नहीं हुआ है.
वैसे भारत में धर्मांतरण एक विवादित विषय रहा है. विशेषकर अगर वह हिंदू से इस्लाम या ईसाइयत में धर्मांतरण हो.
हालांकि हिंदुओं के बौद्ध हो जाने का अब तक ख़ास विरोध नहीं हुआ है क्योंकि बौद्ध धर्म को एक तरह से हिंदू धर्म का ही विस्तार माना जाता है.

aaj fir hindu amaj ko ek aur shankaraacharya kee jaroorat hai. halaki aaj bhee shankaracharya hain magar ve aksham hokar rajneeti mein ulajh gaye hain. bahratvasee ko dharmantaran se ubarane vaale he aadi shankaracharya kahaan ho. ab to aa jaao aur dharmantaran se dukhee bharat ko is rajneetik sankat se ubaaro.

1 comment:

अनुनाद सिंह said...

आपके लेख काफी संतुलित हैं और पक्षपात से रहित हैं।

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