Saturday, 9 June 2007

राष्ट्रपति पद की चुनावी होड़

राष्ट्रपति चुनाव : आँकड़े संप्रग के पक्ष मे
हाल ही में अस्तित्व में आए कुछ क्षेत्रीय दलों के तीसरे मोर्चे का राष्ट्रपति पद के चुनाव में कांग्रेस के नेतृत्व वाले संप्रग उम्मीदवार पर कोई विपरीत असर नहीं पड़ेगा। यदि निर्वाचक मंडल पर नजर डाली जाए तो स्थिति काफी हद तक स्पष्ट हो जाती है। ताज कॉ‍रीडोर मामले में हाल ही के घटनाक्रम को देखते हुए 10 लाख 98 हजार 882 के निर्वाचक मंडल में बसपा के हिस्से के 58 हजार 300 मतों को मिलाकर संप्रग समर्थित उम्मीदवार आसानी से पाँच लाख 70 हजार मत हासिल कर सकता है। दूसरी ओर भाजपा और इसके सहयोगी दलों के मतों को मिलाकर राजग समर्थित उम्मीदवार को तीन लाख 54 हजार 689 मत मिलने की उम्मीद है। हाल ही में तीसरा मोर्चा बनाने वाली अन्नाद्रमुक, समाजवादी पार्टी, रालोद, टीडीपी, एमडीएमके और एजीपी के मतों की कुल संख्या एक लाख छह हजार 281 है। यदि तीसरे मोर्चे के मतों को राजग के साथ मिला दिया जाए तो यह संख्या चार लाख 60 हजार 970 तक पहुँच जाएगी लेकिन तब भी संप्रग के मुकाबले यह लगभग एक लाख 10 हजार कम रहेगी। ऐसी स्थिति में आँकड़ों का खेल संप्रग के साथ नजर आता है। आठ दलों के तीसरे मोर्चे को अभी यह फैसला लेना है कि वह निर्दलीय उम्मीदवार भैरों सिंह शेखावत का समर्थन करें या फिर संप्रग उम्मीदवार का। राष्ट्रपति उम्मीदवार को लेकर संदेह बरकरार राष्ट्रपति पद के लिए संप्रग उम्मीदवार को लेकर संदेह अभी भी बरकरार है। गृहमंत्री शिवराज पाटिल के नाम पर राकांपा ने शुक्रवार को एक तरह से असहमति जताई। दूसरी ओर राष्ट्रपति पद की दौड़ में शामिल पाटिल के कैबिनेट सहयोगी प्रणब मुखर्जी ने सत्तारूढ़ गठबंधन के उम्मीदवार के नाम को अंतिम रूप देने के लिए सहयोगी दलों के साथ बातचीत शुरू की। बहरहाल राजग की ओर से 84 वर्षीय उपराष्ट्रपति भैरोसिंह शेखावत को राष्ट्रपति पद के लिए स्वतंत्र उम्मीदवार के तौर पर उतारे जाने के संकेत के बाद शीर्ष पद के लिए टक्कर होना लगभग तय है। विदेश मंत्री प्रणब मुखर्जी ने राकांपा प्रमुख शरद पवार के साथ बैठक की। बैठक के समय वरिष्ठ कांग्रेस नेता मोतीलाल वोरा, अहमद पटेल, आस्कर फर्नांडीस और जनार्दन द्विवेदी भी मौजूद थे। यह बैठक उस रिपोर्ट के बाद हुई है जिसमें कहा गया है कि पार्टी हाईकमान ने संप्रग उम्मीदवार के नाम पर आम सहमति बनाने के लिए मुखर्जी को प्राधिकृत किया है। फर्नांडीस ने कहा कि राष्ट्रपति पद के लिए होने वाले चुनाव की यह केवल तैयारी है। उन्होंने इस बारे में विस्तार से कुछ नहीं कहा। कौन बनेगा करोड़पति की तर्ज पर इस समय भारत के राजनीतिक गलियारों में सौ टके का एक सवाल है - 'कौन बनेगा राष्ट्रपति.' वीवी गिरी और संजीवा रेड्ड़ी के बीच 1969 की राष्ट्रपति पद की चुनावी होड़ के बाद शायद अब पहली बार ये चुनाव चर्चा का विषय बना है. राजनीतिक विश्लेषक महेश रंगराजन कहते हैं, "इस बार केंद्र की यूपीए सरकार के पास पचास फ़ीसदी से कम मत हैं. अगर किसी वजह से यूपीए, वामपंथियों और बसपा में समझौता नहीं हो पाता है तो यूपीए को चुनाव जीतने में मुश्किल हो सकती है. और मुझे लगता है कि हमारे पिछले दो राष्ट्रपतियों केआर नारायणन और और अब्दुल क़लाम ने लोगों के मन में पद की गरिमा को बहुत बढ़ाया है." हालत ये है कि अगर आप किसी बाज़ार या नुक्कड़ में आम जनता के बीच भी ये सवाल पूछें तो सभी राष्ट्रपति कैसा हो इस पर अपनी राय व्यक्त करते नज़र आते हैं. शायद जनता के राष्ट्रपति या पीपुल्स प्रेसीडेंट के नाम से पहचाने जाने वाले राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल क़लाम, राष्ट्रपति के पद को छोटे-बड़े सभी के मानस पटल तक पहुँचाने में सफल हुए हैं. बहस मीडिया ने राष्ट्रपति पद को लेकर कई सर्वेक्षण करवा कर इस बहस को जीवित कर रखा है. चर्चा इस पर भी ज़ोरों पर है कि राष्ट्रपति एक राजनीतिक पृष्ठभूमि का हो या कोई बुद्धिजीवी, वैज्ञानिक, सामाजिक कार्यकर्ता जो देश की शान बढ़ा सके? इस बार केंद्र की यूपीए सरकार के पास पचास फ़ीसदी से कम मत हैं. अगर किसी वजह से यूपीए, वामपंथियों और बसपा में समझौता नहीं हो पाता है तो यूपीए को चुनाव जीतने में मुश्किल हो सकती है. और मुझे लगता है कि हमारे पिछले दो राष्ट्रपतियों केआर नारायणन और और अब्दुल क़लाम ने लोगों के मन में पद की गरिमा को बहुत बढ़ाया है अंग्रेज़ी दैनिक 'पाइनियर' के संपादक चंदन मित्रा का मानना है कि राजनीतिक परिपक्वता वाला व्यक्ति ही गठबंधन राजनीति के इस दौर में सही रहेगा. चंदन मित्रा कहते हैं, "राजनीति और संविधान का कोई जानकार ही देश का राष्ट्रपति होना चाहिए. अगर देश के सामने कोई जटिल विषय आए तो वो इन मुद्दों को सुलझा सके." पत्रकार नीरजा चौधरी तो राष्ट्रपति के राजनीति से जुड़े होने या न होने की पूरी बहस को ही बेमानी मानती है. उनका कहना है, "ये एक नकली बहस है. उम्मीदवार राजनीतिक हो या न हो. इससे अधिक ज़रूरी ये देखना है कि उम्मीदवार कैसा है." ये एक नकली बहस है. उम्मीदवार राजनीतिक हो या न हो. इससे अधिक ज़रूरी ये देखना है कि उम्मीदवार कैसा है राष्ट्रपति ऐसा होना चाहिए जो ज़ैल सिंह की तरह अपने प्रधानमंत्री के कहने पर झाड़ू उठा कर सफाई करने को तैयार न हो. पर कुछ हद तक केआर नारायणन की तरह हो जो कांग्रेस से जुड़े रहे हों लेकिन पद पर रहने के दौरान वो अपने व्यवहार और कार्यशैली से किसी भी पार्टी से जुड़े नज़र नहीं आए. राष्ट्रपति का कद ऐसा हो कि जो रोज़मर्रा के झगड़ों के ऊपर रहे. राष्ट्रपति अब्दुल क़लाम कुछ हद तक एपीजे अब्दुल क़लाम को सफल राष्ट्रपति माना जा सकता है. पर महेश रंगराजन इस ओर ध्यान आकृष्ट करते हैं कि हाल के उनके कुछ बयान दिखाते हैं कि क़लाम जैसे राष्ट्रपति की दिक्कतें क्या हैं. रंगराजन बताते हैं,"अभी दो हफ़्ते पहले राष्ट्रपति ने कह दिया कि देश में दो दलीय व्यवस्था हो. ये एक कठिन सवाल है. इस पर तय करने वाले मतदाता हैं और देश के राजनीतिक दल हैं. उन्होंने नदियों के जोड़े जाने पर भी परियोजना बनाने के वकालत की है. ये सब विवादास्पद मामले हैं. इस तरह मुद्दों पर वो न बोलें तो ही अच्छा है." नज़रें कुछ हद तक बहुजन सामज पार्टी नेता मायावती पर हैं कि वे किस उम्मीदवार पर अपनी मुहर लगाती हैं. उम्मीदवारों के नाम लगातार आ रहे हैं और बदल रहे हैं. प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की वाम नेताओं से हुई बातचीत में प्रणव मुखर्ज़ी, सुशील कुमार शिंदे और कर्ण सिंह के नामों की चर्चा हुई थी. फिर जब सोनिया गांधी डीएमके नेता करुणानिधि से मिलीं तो करण सिंह का नाम सूची से बाहर हुआ और शिवराज पाटिल और अर्जुन सिंह का नाम जुड़ गया. आगे उत्तर प्रदेश के राज्यपाल रहे मोती लाल बोरा का नाम भी उछला. कांग्रेस में उम्मीदवार का अपनी नेता के प्रति आस्था होना उम्मीदवार बनने का सबसे बड़ा मापदंड हैं. जहाँ तक यूपीए सरकार का सवाल है तो उसके लिए कई मंत्रिमंडलीय समूहों की महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारी संभाल रहे प्रणव मुखर्ज़ी को सरकार से हटाना मुश्किल नज़र आ रहा है. मेरा मानना है कि मायावती किसी भी उम्मीदवार पर नहीं अटकेगीं. उनका ताज़ कॉरिडोर का मामला सुलझ गया है. अपने राज्य के लिए उन्होंने बड़ा आर्थिक पैकेज़ मांगा है. फिर भी वो किसी दलित नेता को उम्मीदवार न बनाए जाने की बात उठा सकती हैं. मायावती नहीं चाहेंगी कि कोई अन्य नेता दलित राजनीति का केंद्र बनकर उभरे बीएसपी नेता मायावती की पसंद पर नीरजा चौधरी का कहना है,"मेरा मानना है कि वो किसी उम्मीदवार पर तो नहीं अटकेगीं. उनका ताज़ कॉरिडोर का मामला सुलझ गया है. अपने राज्य के लिए उन्होंने बड़ा आर्थिक पैकेज़ मांगा है. फिर भी वो किसी दलित नेता को उम्मीदवार न बनाए जाने की बात उठा सकती हैं. मायावती नहीं चाहेंगी कि कोई अन्य नेता दलित राजनीति का केंद्र बनकर उभरे." शेखावत की उम्मीदवारी मौज़ूदा उपराष्ट्रपति भैरोसिंग शेखावत भी राष्ट्रपति के उम्मीदवार हैं. अगर वे स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में भी चुनाव लड़ते हैं तो भी उनेक लिए जीत हासिल करना आसान नहीं नज़र आता. यूपीए और वाम दलों के पास 5.2 लाख मत हैं, एनडीए के पास 3.5 लाख और अन्य क्षेत्रीय दलों के पास 1.2 लाख मत हैं. अगर एनडीए और अन्य दल साथ भी हो जाते हैं तो भी वो यूपीए और बसपा के साथ होने की स्थिति में इस दौड़ में ख़ासे पीछे रह जाएंगे. कुल मिलाकर अब 10 जनपथ की पसंद और मायावती की उस पर मुहर ही तय करेगी कि देश का अगला राष्ट्रपति कौन होगा.
आंकड़ों का खेल ही है राष्ट्रपति का निर्वाचन : प्रणव मुख़र्जी
उन्हे संप्रग सरकार में 'मिस्टर डिपेंडेबल' यूं ही नहीं कहते। टेढ़े संवैधानिक मसले हों या पेचीदा राजनीतिक संकट, हर मामले में कांग्रेस अध्यक्ष से लेकर प्रधानमंत्री तक उनकी सलाह लेते है। जीवन के 70 से अधिक बसंत देख चुके विदेश मंत्री प्रणव मुखर्जी को लोग सरकार की धुरी कहते हैं। विदेशी मंत्री होने के साथ वह दर्जनों समितियों के मुखिया भी हैं। कांग्रेस के कद्दावर नेता प्रणव राष्ट्रपति पद के लिए गैर-राजनीतिक उम्मीदवार की बहस को पूरी तरह खारिज करते है। उनकी राय में यह पूरी तरह आंकड़ों का खेल है। यह टिप्पणी तब और भी महत्वपूर्ण हो जाती है जबकि उनका नाम राष्ट्रपति पद के लिए संभावित उम्मीदवारों में गिना जा रहा है। पेश है विभिन्न राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय विषयों पर प्रणव मुखर्जी से दैनिक जागरण के वरिष्ठ संवाददाता प्रणय उपाध्याय की बातचीत के अंश-
प्र: आपको इस सरकार में मिस्टर डिपेंडेबल कहा जाता है। क्या कभी लगता है कि आप पर काम का बोझ काफी ज्यादा है?
उ: यह सच है कि मैंने लगभग 50 मंत्रिसमूहों की अध्यक्षता की है, जो जरूरत पड़ने पर सरकार की तरफ से फैसले लेते हैं, लेकिन सारे 'ग्रुप आफ मिनिस्टर' एक साथ काम नहीं करते है। इस समय करीब 12 मंत्री समूह मेरे पास हैं। अपने पूरे कैरियर में मंत्री के रूप में मैंने एक-साथ कई जिम्मेदारियां निभाई है। फिर भी यह कहना ठीक नहीं होगा कि मैं काम के बोझ से लदा हूं।
प्र: एक सामान्य धारणा है कि प्रणव मुखर्जी को अपनी क्षमता के मुकाबले कम मिला है।
उ: नहीं, मैं ऐसा नहीं कहूंगा। अपने पूरे कैरियर में मैंने वो भूमिकाएं निभाई है जो पार्टी ने मुझे सौंपी। पार्टी नेतृत्व हमेशा उदार रहा है, जिसने न केवल मुझे महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां दीं, बल्कि उन्हें निभाने में मदद भी की। हमारे यहां जिस तरह की प्रशासन व्यवस्था है उसमें सभी को योगदान देना पड़ता है। यह एक आदमी का शो नहीं, बल्कि साझा जिम्मेदारी की व्यवस्था है।
प्र: केंद्र में गठबंधन सरकार बनाने का कांग्रेस का यह पहला प्रयोग अपने तीन साल पूरे करने जा रहा है। कौन सी गलतियां है जिन्हें कांग्रेस भविष्य की गठबंधन सरकारों में दोहराना नहीं चाहेगी?
उ: सब जानते है इससे पहले हमने कभी गठबंधन सरकार नहीं बनाई। कुछ गठबंधनों को बाहर से समर्थन जरूर दिया, जो अपने निहित अंतर्विरोधों के कारण ज्यादा समय चल नहीं पाए। 1996 के पहले तक कांग्रेस ने जिन गठबंधनों को समर्थन दिया वे कहीं न कहीं आम चुनावों में कांग्रेस की हार का भी कारण थे, लेकिन संप्रग सरकार चुनाव पूर्व और चुनाव के बाद हुए गठजोड़ का प्रतिफल है। अत: यदि हम इसे जारी रख सकें तो यह अधिक स्थायी हो सकता है।
प्र: क्या आपको लगता है वामदल गठबंधन धर्म का पालन कर रहे है?
उ: लंबे समय तक विपक्ष में रहने के कारण वाम विचारधारा में कांग्रेस के प्रति एक निहित विरोध का विकास हो चुका है। अत: कुछ अंतर्विरोध जरूर है, लेकिन इतने नहीं कि सरकार गिर जाए। यह कहना ठीक नहीं होगा कि वामदल गठबंधन का खेल खराब करने वाले घटक है। साझा न्यूनतम कार्यक्रम और समन्वय के सहारे हम वैचारिक मतभेद को यथासंभव दूर करने की कोशिश करते रहते है।
प्र: क्या भारत-अमेरिका परमाणु समझौते पर आगामी जी-8 शिखर सम्मेलन के दौरान होने वाली बुश-मनमोहन मुलाकात में अंतिम मुहर लग पाएगी या अभी लंबा इंतजार करना होगा?
उ: अमेरिका के साथ परमाणु करार के मुदं्दे पर बातचीत चल रही है और कुछ प्रगति भी हुई। जी-8 सम्मेलन के दौरान जब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और राष्ट्रपति बुश मिलेंगे तो इस बारे में बात होगी। हम कोशिश कर रहे है कि इस मामले को जल्द से जल्द अपने अंजाम तक पहुंचाया जा सके, लेकिन कोई समय सीमा तय नहीं की जा सकती।
प्र: परमाणु समझौते राज्यसभा में दिया प्रधानमंत्री का बयान भारतीय वार्ताकारों के लिए बंधन बन रहा है। क्या इससे बचना उचित होता?
उ: वह एक जरूरत थी। अंतराष्ट्रीय समझौता करना तकनीकी तौर पर कार्यपालिका का विशेषाधिकार हो सकता है, लेकिन लोकतंत्र में बड़े नीतिगत विषय पर हम संसद के प्रति जवाबदेह है। संसद में प्रधानमंत्री के सामने कुछ सवाल उठाए गए थे जिनका जवाब देना उनकी जिम्मेदारी थी। राष्ट्रहित की रक्षा हर दृष्टि से करने की जरूरत है। हमें अपने सार्वभौमिक हितों को भी बचाए रखना है इसलिए जो भी समझौता हो उसमें इन दोनों पहलुओं का ध्यान रखने की जरूरत है।
प्र: कूटनीति लेन-देन के आधार पर चलती है। अत: परमाणु परीक्षण के अधिकार, प्रयुक्त ईधन के पुन: इस्तेमाल और तकनीक लौटाने जैसे मुदं्दों पर भारत कहां तक लचीलापन दिखाने को तैयार है?
उ: यह सही है कि कूटनीति में लेन-देन होता है, लेकिन मोटे तौर पर इस बात को समझिए कि मूलभूत क्षेत्रों में कोई समझौता नहीं होता। अमेरिकी एक जुमले का प्रयोग हमेशा करते है 'सर्वोच्च राष्ट्रहित'। देश हित के आड़े कोई चीज आएगी तो अमेरिका समझौता नहीं करेगा। इसी तरह यदि कोई बात हमारे सार्वभौमिक अधिकार और राष्ट्रहित के विपरीत जाएगी तो हम समझौता नहीं करेगे।
प्र: पाकिस्तान के साथ बने आतंकवाद निरोधी तंत्र के संदर्भ में अब धारणा बन रही है कि यह ठीक से काम नहीं कर रहा है।
उ: हम कुछ आगे बढ़े है, लेकिन यह अपेक्षा नहीं की जा सकती कि रातों-रात हालात में बदलाव आ जाएगा। हमने जो कुछ पाया है उसे भी कमतर नहीं कहा जा सकता। पिछले साल नवंबर में बने आतंकवाद निरोधी साझा तंत्र को भी हमें अभी कुछ समय देने की जरूरत है।
प्र: इन दिनों एक बहस चल रही है कि भारत में राष्ट्रपति राजनीतिक होना चाहिए या गैर-राजनीतिक। इस बारे में आपका क्या कहना है?
उ: राष्ट्रपति चुनाव के मामले में मुझे जो कहना था मैं अपने बयान में कह चुका हूं। डा. कलाम देश के 11वें राष्ट्रपति है। एस. राधाकृष्णन तथा जाकिर हुसैन ख्यात शिक्षाविदं् थे वहीं के. आर. नारायणन सेवानिवृत्त प्रशासनिक अधिकारी होने के साथ-साथ एक प्रख्यात बुद्धिजीवी तथा राजनेता भी थे। राष्ट्रपति एक संवैधानिक पद है और इसका चुनाव इलेक्टोरल कालेज के जरिए होता है। दरअसल एकमात्र योग्यता यही है कि जिसे इलेक्टोरल कालेज का विश्वास हासिल है और उसे ही राष्ट्रपति बनना चाहिए। अत: यह सब बौद्धिक बहस है और मैं इसे कोई गंभीर विषय नहीं मानता।

1 comment:

Raag said...

पैराग्राफ के बीच में जगह दिया करें। अन्यथा पढ़ा ही नहीं जाता। वैसे राष्ट्रपति चुनाव में अगर डा. कलाम खड़े होते, तो ही कुछ मेरी रुचि रहती, वरना तो बाकियों से कोई उम्मीद नहीं है।

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