Friday 1 June 2007

हिंदी क्षेत्र में सिकुड़ते वामपंथी

उत्तरप्रदेश में वामपंथी हारे और ऐसे हारे कि सफाया ही हो गया। पिछले तीन साल पहले जब लोकसभा चुनावों के बाद केंद्र की कांग्रेस नेतृत्व वाली यूपीए सरकार के गठन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई तब यह भी लगाने लगा कि अब आम आदमी कि वक़ालत करनेवाली कोई नियंत्रक राजनैतिक ताकत सरकार पर अंकुश रखेगी। जानकारों का मानना है कि इतनी सारी अपेक्षाएँ और उत्तरप्रदेश में जमीनी कामकाज के अभाव ने वामपंथियों को हाल में हुये उत्तरप्रदेश चुनाव ने मटियामेट कर दिया। आइये लोकसभा चुनाव से ही उन स्थितियों का आंकलन करें जिसने वामपंथियों को उत्तरप्रदेश में अपना बोरिया-बिस्तर समेटने पर मजबूर कर दिया। लोकसभा चुनाव के बाद सक्रिए राजनीति में वामपंथी दलों विशेषरूप से मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की भूमिका सहसा बेहद महत्वपूर्ण हो गई. पिछले वर्ष के दौरान वामपंथी दलों पर मीडिया ने जितना फोकस किया, उतना शायद ही पहले कभी किया हो. लेकिन राष्ट्रीय राजनीति में एकाएक मिले महत्व के बावजूद आज भी कम्युनिस्ट आंदोलन अपनी ऐतिहासिक कमज़ोरी का उतना ही, बल्कि कुछ की राय में कहीं अधिक, शिकार है जितना कई दशकों पहले था. विशाल हिंदी भाषी भूभाग में उसकी उपस्थिति नगण्य है. वामपंथी दल विशेषकर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और मार्क्सवादी पार्टी, इस वास्तविकता से अच्छी तरह परिचित हैं कि हिंदी प्रदेश में राजनीतिक शक्ति अर्जित किए बगैर राष्ट्रीय राजनीति में लगातार महत्व बनाए रखना असंभव है. उनके लिए चिंता की बात यह है कि पिछले तीन दशकों के दौरान हिंदी प्रदेश में उनकी उपस्थिति घटती गयी है और उनके प्रभावक्षेत्र सिकुड़ते गए हैं. बहुत समय तक इस वास्तविकता को नज़रअंदाज़ करने के बाद अब मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी इससे टकराने और अंततः बदले के मूड में नज़र जा रही है. माकपा एक बार फिर हिंदी प्रदेश में सक्रिय होने के लिए कमर कस रही है. इसके पहले 1978 में भी माकपा ने एक ऐसी ही कोशिश की थी. पार्टी के सल्किया प्लेनम में निर्णय लिया गया था कि हिंदी प्रदेश में संगठन का विस्तार किया जाए. इस निर्णय के तहत पार्टी की केंद्रीय समिति का कार्यालय कोलकाता से दिल्ली लाया गया. दिल्ली से हिंदी और उर्दू में साप्ताहिक मुखपत्र शुरू किए गए. हिंदी-उर्दू लेखकों को व्यापक मंच प्रदान करने के लिए जनवादी लेखक संघ का गठन किया गया और एकबारगी ऐसा लगा कि पार्टी हिंदी प्रदेश में सक्रिए हस्तक्षेप के लिए तैयार है. कमी शाहबानो केस और बाबरी मस्जिद का ताला खुलने के बाद आक्रामक रामजन्मभूमि आंदोलन-ये दो मुद्दे ऐसे थे जिन पर धर्मनिरपेक्ष वामपंथी दृष्टि से जनता के बीच अभियान छेड़ा जा सकता था. वामपंथी दलों अब उत्तर भारत में अपनी मौजूदगी बढ़ाना चाहते हैं लेकिन वामपंथी दलों ने केवल कुछ बयान जारी करके ही संतोष कर लिया. माकपा और भाकपा दोनों ने ही अपनी सीमित शक्ति का भी इस्तेमाल नहीं किया और हिंदू एवं मुस्लिम संप्रदायवादियों के लिए मैदान खुला छोड़ दिया. नतीजतन 80 के दशकों के मध्य हिंदी प्रदेश में इन पार्टियों की जो शक्ति थी, आज उतनी भी नहीं है. संगठन और विधानसभा एवं संसद, दोनों ही स्तरों पर उसमें कमी आई है. कम्युनिस्ट आंदोलन की सबसे बड़ी कमज़ोरी यह रही है कि उसने धर्म, संस्कृति और जाति व्यवस्था को गहराई से समझकर अपनी रणनीति बनाने की कोशिश नहीं की. उसने समाज के व्यापक तबकों के साथ ऐसा तालमेल स्थापित नहीं किया जिसके कारण कम्युनिस्ट पार्टियां उनके दैनंदिन जीवन का अंग बन सकें. उन्होंने ‘वर्ग’ को केवल एक आर्थिक अवधारणा के रूप में ग्रहण किया, उसके सामाजिक रूप ‘जाति’ को समझने की ज़रूरत महसूस नहीं की. कमज़ोरी जहाँ-जहाँ कम्युनिस्ट पार्टियाँ मजबूत थीं, वहाँ उनके नेताओँ की छवि मेहनतकश वर्गों के पक्ष में खड़े होने वाले और उनके आर्थिक संघर्षों को नेतृत्व देने वाले जुझारू योद्धाओं की तो थी, पर इससे अधिक नहीं. नतीजतन लोग उनके पास अपनी समस्याओं के समाधान के लिए तो आते थे. पर चुनाव में वोट डालने के वक्त अपनी जाति के नेताओं की बात मानते थे. मध्य और पिछड़ी जातियों के उदय के बाद बने नए जातिगत समीकरणों और गठबंधनों ने चरण सिंह, मुलायम सिंह यादव और लालू प्रसाद यादव जैसे नेताओं को उभारा. दलितों की अस्मिता की लड़ाई को भी कम्युनिस्ट पार्टियाँ अपने एजेंडे पर नहीं ला पाईं. नास्तिक और धर्मविरोधी छवि के कारण उनका समाज के बहुसंख्यक तबके के साथ घनिष्ठ संबंध नहीं बन पाया. इस बीच बिहार में नक्सलवादी संगठनों के प्रभाव में अच्छा विस्तार हुआ. लेकिन उनकी भूमिका भी भूस्वामियों के ख़िलाफ़ किसानों के संघर्ष तक सीमित रही. जब उनमें से कुछेक ने संसदीय रास्ता अपनाया तो वे चुनाव में खास उल्लेखनीय सफलता हासिल नहीं कर पाए. हिंदी प्रदेश में कम्युनिस्ट आंदोलन के विस्तार के लिए स्थितियाँ अनुकूल है. सांप्रदायिक तथा जातिवादी पार्टियों का कामकाज लोग देख चुके हैं. उन्हें सच्चे विकल्प की तलाश है. ऐसे में यदि मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव की पिछलग्गू बनने के बजाए कम्युनिस्ट पार्टियाँ अपनी अलग राह निकालें, तो स्थिति में बदलाव की प्रक्रिया शुरू हो सकती है. आइये उस गम्भीरता का भी अवलोकन करें जब पश्चिम बंगाल में अपनी सत्ता के पच्चीस साल पूरे होने पर वामपंथी रणनीतिकारों ने अपनी पीठ थपथपाई थी हलाकिउसके बाद ही उत्तरप्रदेश चुनाव में उनकी जमीन खिसक गई। और वे सवाल भी खडे कर गई कि क्या हिंदी क्षेत्र में जमना इनकी रणनीति का हिस्सा नही है। कम्युनिस्ट शासन के 25 वर्ष सत्ताधारी मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेताओं का कहना है कि उन्होंने इस दौर में भूमि सुधार और ग़रीबी उन्मूलन कार्यक्रम दूसरे राज्यों के मुक़ाबले और बेहतक ढंग से लागू किए हैं. कम्युनिस्ट पार्टी को व्यापक समर्थन है वामपंथियों ग्रामीण क्षेत्रों के मतदाताओं के समर्थन से लगातार चुनाव जीतते आ रहे हैं.लेकिन राज्य के मुख्यमंत्री बुद्धदेब भट्टाचार्य का कहना है कि वे इतने भर से ही संतुष्ट नहीं हैं. वे पश्चिम बंगाल को विदेशी निवेशकों के लिए आकर्षक बनाना चाहते हैं. तीन दशक पहले पश्चिम बंगाल भारत के सबसे ज़्यादा समस्याग्रस्त देशों में एक था. पच्चीस साल पहले सत्ता में आने पर भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) ने नेतृत्व वाले वाममोर्चे के सामने सबसे बड़ी चुनौती सत्ता में बने रहना था. लेकिन जल्द ही मोर्चा मज़बूत होता चला गया और विपक्षी पार्टियाँ आपसी कलह में फँस कर कमज़ोर होती गईं. वाममोर्चे ने सबसे पहले भूमि सुधार कार्यक्रम लागू करके बरगादारों यानी खेतों में मज़दूरी करके रोज़ी रोटी कमाने वालों को मालिकाना हक़ दिया. इसके साथ ही सत्ता का विकेंद्रीकरण करके गाँवों को ज्यादा ताक़त दी गई. भारत के दूसरे राज्यों की सरकारें इन कार्यक्रमों को लागू करने में सफल नहीं रहीं. परिणाम यह हुआ कि पूरे 25 साल तक मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में मोर्चा ग्रामीण मतदाता के समर्थन से चुनाव जीतता चला गया. कायापलट भूमि सुधार कार्यक्रम लागू करने में पश्चिम बंगाल ने दूसरे राज्यों को रास्ता दिखाया. विश्लेषकों का कहना है कि मुख्यमंत्री को इस बात का साफ़ एहसास है कि अगर राज्य की आर्थिक स्थिति को दुरस्त करना है तो बीमार उद्योगों की दशा सुधारनी होगी. वाममोर्चे की स्थिरता भी इसी पर निर्भर होगी. विश्व बैंक की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि ग्रामीण क्षेत्रों में ग़रीबी तक़रीबन आधी हो गई है और उत्पादन उत्पादन दोगुना हो गया है. पड़ोसी राज्यों असम और बिहार के मुक़ाबले पश्चिम बंगाल में क़ानून व्यवस्था की स्थिति भी बेहतर है. पश्चिम बंगाल के ग्रामीण क्षेत्रों में ग़रीबी तक़रीबन आधी हो गई है और उत्पादन उत्पादन दोगुना हो गया है विश्व बैंक कम्युनिस्ट धारा के उग्र तत्वों को सरकार ने क़ाबू में रखा है. लेकिन मुख्यमंत्री भट्टाचार्य का मानना है कि उद्योग, शिक्षा और चिकित्सा सुविधा के मामले में राज्य दूसरों के मुक़ाबले काफ़ी पीछे है. भविष्य की योजना मुख्यमंत्री ने राज्य को अग्रणी औद्योगिक राज्य में बदलने और सूचना तकनॉलॉजी पर ज़्यादा ज़ोर देने की अपील की. उन्होंने कहा कि क़ीमतें नीचे लाकर उत्पादन बढ़ाया जाना चाहिए. विश्व व्यापार संघ में ऐसा करना काफ़ी महत्त्वपूर्ण है. अलबत्ता वाममोर्चे के दूसरे नेताओं ने बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा ठेके पर कर्मचारी रखने की प्रथा का विरोध किया है. बहरहाल, पश्चिम बंगाल के ताक़तवर ट्रेड यूनियन आंदोलन की वजह से राज्य सरकार को काफ़ी परेशानी उठानी पड़ी है. सरकार ने बार बार ट्रेड यूनियनों से उग्रता कम करने की बात कही है लेकिन मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी और दूसरी वामपंथी पार्टियों को ट्रेड यूनियनों से ताक़त भी मिलती रही है, इस कारण असमंजस काफ़ी ज़्यादा है.इन सबसे बावजूद वाममोर्चे के सत्ता में 25 वर्ष पूरे करना महत्वपूर्ण है. सत्ता का स्थानांतरण अब उन कारणों को भी तलाशना जरूरी हो गया है जिसने बसपा को इतनी मजबूत जमीन दीं और वामपंथियों व कांग्रेस से छीन ली। भारत के संविधान का मसौदा तैयार करने वाली समिति की अध्यक्षता करने वाले डा. बीआर अंबेडकर ने चेतावनी दी थी कि यदि हम शोषित, उत्पीड़ित और वंचित वर्गो को राजनीतिक शक्ति नहीं दे पाए तो हमारा लोकतंत्र खतरे में पड़ जाएगा। नवंबर 1949 में संविधान के अंतिम अध्ययन के दौरान संविधान सभा के कामकाज को समेटते हुए अंबेडकर ने कहा था, ''यह कहने में जरा भी संकोच नहीं कि इस देश में राजनीतिक ताकत पर लंबे समय से कुछ खास लोगों का एकाधिकार रहा है। इस एकाधिकार ने अधिसंख्य लोगों को न केवल बेहतर जीवन व्यतीत करने के अवसर से वंचित किया है, बल्कि उन्हे उससे भी दूर रखा है जिसे जीवन की सार्थकता भी कहा जा सकता है।'' यद्यपि आजादी के बाद दलितों को लोकतांत्रिक निकायों, सरकारी नौकरियों तथा शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण का लाभ मिलता रहा, लेकिन राजनीतिक सत्ता की बागडोर कभी उनके हाथों में नहीं रही। अनुसूचित जातियों के हित को लेकर प्रत्येक राजनीतिक दल मात्र मौखिक सहानुभूति जताता रहा और इसका परिणाम यह हुआ कि सत्ता अपरिहार्य रूप से हिंदू समाज की ऊंची जातियों तथा प्रभावशाली मध्यम वर्ग के इर्द-गिर्द सिमटी रही। लिहाजा उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में बसपा, जिसका गठन ही दलितों की राजनीतिक आकांक्षा की पूर्ति के लिए किया गया था, को मिला स्पष्ट बहुमत भारतीय राजनीति में पहली बार सत्ता के ऊंची जातियों से सर्वाधिक शोषित और पीड़ित समाज को स्थानांतरण का प्रतीक है। यह पहल चाहे जितनी विलंब से सामने आई हो, लेकिन इसमें संदेह नही कि पिछले साठ वर्षो की भारतीय लोकतंत्र की यात्रा में यह घटनाक्रम एक मील का पत्थर है और उम्मीद है कि इससे शोषित और वंचित समाज में व्याप्त यह कड़वाहट कम होगी कि भारतीय राष्ट्र-राज्य ने उसके लिए समान अवसर उपलब्ध कराने के सार्थक प्रयास नहीं किए। यह विचित्र है कि दलितों में राजनीतिक चेतना जागृत करने का सबसे पहले प्रयास करने वाले डा.अंबेडकर को ज्यादा सफलता नहीं मिली। बात चाहे लेबर पार्टी की हो जिसकी स्थापना उन्होंने 1930 के दशक में की या फिर काफी बाद में बनाई गई रिपब्लिकन पार्टी की, अंबेडकर दलितों को कोई राजनीतिक पहचान दिलाने में असफल रहे। इस विचार ने अंबेडकर की मृत्यु के करीब तीन दशक बाद उस समय गति पकड़ी जब कांशीराम ने पिछड़े और अल्पसंख्यक समुदाय के कर्मचारियों के संगठन के माध्यम से दलितों के राजनीतिक दल का आधार तैयार किया। जैसे-जैसे बामसेफ की ताकत बढ़ती गई, कांशीराम राजनीतिक दल के गठन की दिशा में आगे बढ़ते गए। उन्होंने 1980 के दशक की शुरुआत में दलित शोषित समाज संघर्ष समिति की स्थापना की। डीएस-फोर ने पहली बार 1984 के लोकसभा चुनाव के पूर्व उत्तर प्रदेश में अपनी उपस्थिति महसूस कराई। इंदिरा गांधी की हत्या के उपरांत हुए इस चुनाव में कांग्रेस ने सहानुभूति की लहर पर सवार होकर विरोधी दलों का सफाया कर दिया, लेकिन पूर्वी और मध्य उत्तर प्रदेश में दीवारों पर दलित एकता के नारे भी अंकित थे। डीएस-फोर 1985 में पूर्ण राजनीतिक दल में परिवर्तित हो गया। प्रारंभ में पार्टी का ध्यान दलित मतों की एकजुटता पर केंद्रित था। एक बार जब यह काम हो गया तो पार्टी ने मुसलिम समर्थन पाने की ओर रुख किया और इसका परिणाम यह हुआ कि 1999 के लोकसभा चुनावों में पार्टी ने 14 सीटे (22.08 प्रतिशत मत) हासिल कर लीं। दलितों पर बसपा की पकड़ संदेह से परे थी, लेकिन उसने महसूस किया कि मुसलिम मत उसे सपा के साथ बांटने पड़ रहे है। उसका मत प्रतिशत 22 से 24 प्रतिशत के बीच बरकरार था, लेकिन यह विधानसभा चुनाव में स्पष्ट बढ़त हासिल करने के लिए अपर्याप्त था। पिछले दो दशकों में राजनीतिक परिदृश्य में अनेक क्षेत्रीय और जाति आधारित दलों की बाढ़ सी आ गई है, जिनके पास इतना वोट बैंक है कि वे कांग्रेस और भाजपा सरीखी बड़ी पार्टियों को चुनौती दे सकें। इस स्थिति ने राजनीतिक मुकाबले को त्रिकोणीय और चतुष्कोणीय बना दिया है, जिसके चलते किसी एक दल के अकेले बहुमत पाने की संभावना कम होती जा रही है। वोट और सीट के इस संबंध से भलीभांति परिचित होने के बाद बसपा ने करीब एक वर्ष पूर्व अपना सामाजिक आधार बढ़ाने का फैसला किया ताकि वह उस अंतर को पाट सके जो उसे अकेले सत्ता में आने से रोक रहा था। यद्यपि बसपा का ताना-बाना ऊंची जातियों के प्रखर विरोध पर बुना था, बावजूद इसके मायावती ने ब्राह्मणों को अपनी ओर आकर्षित करने का फैसला किया, क्योंकि उन्होंने नव-शक्ति संपन्न अन्य पिछड़ा वर्ग को अपेक्षाकृत बड़ी बुराई के रूप में देखा। बसपा ने अनेक ब्राह्मण सम्मेलन आयोजित किए और दलित-मुसलिम-ब्राह्मण संयोजन का आधार तैयार किया, जो अंतत: निर्णायक साबित हुआ। इस समीकरण ने बसपा का मत प्रतिशत भी 22-24 से बढ़ाकर 30 के ऊपर पहुंचा दिया। हम नि:संदेह भाग्यशाली है कि हमने देश के सबसे बड़े राज्य में सत्ता दलितों के हाथों में हस्तांतरित होती देखी और वह भी लोकतांत्रिक पद्धति और संविधान पर कोई आँच आए बिना। माओवादी और दूसरे कट्टरपंथी वामपंथी संगठन लंबे समय से लोकतांत्रिक पद्धति को नष्ट-भ्रष्ट करने के लिए दलितों को अपने साथ लाने की कोशिश करते रहे है। बावजूद इसके दलितों के बहुमत की प्रतिबद्धता लोकतांत्रिक प्रक्रिया के प्रति रही है। दलितों ने सदियों से वह अधिकतम शोषण और तिरस्कार झेला है जो कोई मनुष्य किसी दूसरे मनुष्य पर कर सकता है। उन्होंने जो धैर्य एवं सहनशीलता प्रदर्शित की वह नि:संदेह सराहना के काबिल है। सत्ता और सम्मान पाने के लिए उनका धैर्य इसलिए भी प्रशंसनीय है, क्योंकि 1949 में अंबेडकर ने घोषणा की थी कि शोषित वर्ग शाषित होते-होते थक चुका है और इसलिए शासन करने के लिए अधीर होता जा रहा है। अंबेडकर ने चेताया था कि वंचित वर्ग में आत्मचेतना के आग्रह को वर्गीय संघर्ष के रूप में उभरने नहीं देना होगा। दलितों को खुद शासन करने का अवसर पाने में 60 वर्ष लग गए-कम से कम एक राज्य में ही सही। सौभाग्य से दलितों का दल एक इंद्रधनुषी गठबंधन पर सवार होकर सत्ता में आया है। इसने हिंदू जाति पद्धति के दो विपरीत समुदायों के बीच राजनीतिक सेतु बनाने की असंभव सरीखी उपलब्धि हासिल की है। अब यह प्रयोग दूसरे राज्यों में भी दोहराया जा सकता है। बसपा ने मध्य प्रदेश, पंजाब, जम्मू-कश्मीर और हरियाणा में भी उपस्थिति दर्ज कराई है। वह अपनी निगाह राजस्थान, बिहार और कर्नाटक पर भी केंद्रित कर सकती है। यदि ऐसा होता है तो बसपा ऐसी पहली क्षेत्रीय पार्टी होगी जो कांग्रेस तथा भाजपा सरीखे दलों को अस्थिर करने में सफलता हासिल केरगी। ये कथित राष्ट्रीय दल अभी भी उस क्षति को समझ नहीं पाए है जो बसपा ने उन्हे उत्तर प्रदेश में पहुंचाई है। यदि वे बसपा की बढ़त को कमकर आंकेंगे तो जल्द ही उन्हे राष्ट्रीय स्तर पर एक अन्य दावेदार मिल जाएगा। अब तो पश्चिम बंगाल में सेज के मुद्दे पर बवाल और दूसरे मुद्दे ही वाममोर्चा को उल्झाये हुये और ये भी हिंदी क्षेत्र में माकपा की वापसी होने या ना होने में निरनायक भूमिका निभाएंगे।

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