( आज के दलित की आखिरी कडी )
उत्तर प्रदेश के इन चुनावों ने देश की राजनीतिक और सामाजिक स्थिति में बड़े परिवर्तन के संकेत दिए हैं. मायावती ने जिस तरह दलितों और अगड़ी जातियों में तालमेल का अदभुत रसायन तैयार किया है, वह अपने आपमें मिसाल है.इससे न केवल उन्हें बहुमत मिला बल्कि जात-पात विहीन समाज की स्थापना के सपने को भी नींव हासिल हुई.कहने की ज़रूरत नहीं है, ये वहीं मायावती हैं जिन्होंने कभी नक्सलवादियों के मशहूर नारे तिलक, तराजू और तलवार... को अपना लिया था.उस समय लगता था कि जातियों में बंटे भारतीय समाज में बिखरी पड़ी अलगाव की लकीरों को निहित स्वार्थ में वे गहरा करने में जुटी पड़ी हैं.पर जल्दी ही उनकी समझ में आ गया कि अकेले दलित समाज के वोट बैंक में सामर्थ्य नहीं है कि वह उन्हें सत्ता की चौहद्दियों का स्वामिनी बना सके.इसलिए उन्होंने सर्वजन हिताए की पुरानी विरासत को अपनाया. परिणाम सामने है.'तिलक, तराजू और तलवार...' के नारे से 'हाथी नहीं गणेश...' है तक की उनकी यात्रा जिन मोड़ों से होकर गुजरी वह अपने आपमें अलग लेख का विषय है.परंतु उनके इस सियासी कायांतरण को भारतीय लोकतंत्र की जीत मानी जानी चाहिए.ऐसा मैं इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि भारतीय समाज में जातियों के अलगाव के बावजूद भाइचारे की जड़ें बहुत गहरी हैं.इस देश में एकता की धारणा हज़ारों साल पुरानी है. हर भारतीय जाने अनजाने उसे अपने मन में धारण किए रहता है.इसीलिए अलगाववादी या उत्तेजक भाषण देनेवाले एक सीमा तक ही अपना उल्लू सीधा कर पाते हैं.अंतत: उन्हें या तो स्वर बदलना होता है या किसी बड़े सियासी गुट का दामन थामना होता है. एनडीए और यूपीए के घटक दल इसका उदाहरण हैं.अपनी बोली और अपने राग अलापने के बावजूद अपने अस्तित्व के लिए उन्हें ऐसे गठजोड़ करने ही पड़ते हैं.इसीलिए उत्तर प्रदेश का मौजूदा बदलाव सुकून देता है. इससे पहले बिहार में हम इसकी भूमिका बनती देख चुके हैं. बिहार में लालू का एमवाई (मुसलमान और यादव) समीकरण था तो उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह इसी समीकरण के सहारे राज कर रहे थे.
उत्तर प्रदेश के इन चुनावों ने देश की राजनीतिक और सामाजिक स्थिति में बड़े परिवर्तन के संकेत दिए हैं. मायावती ने जिस तरह दलितों और अगड़ी जातियों में तालमेल का अदभुत रसायन तैयार किया है, वह अपने आपमें मिसाल है.इससे न केवल उन्हें बहुमत मिला बल्कि जात-पात विहीन समाज की स्थापना के सपने को भी नींव हासिल हुई.कहने की ज़रूरत नहीं है, ये वहीं मायावती हैं जिन्होंने कभी नक्सलवादियों के मशहूर नारे तिलक, तराजू और तलवार... को अपना लिया था.उस समय लगता था कि जातियों में बंटे भारतीय समाज में बिखरी पड़ी अलगाव की लकीरों को निहित स्वार्थ में वे गहरा करने में जुटी पड़ी हैं.पर जल्दी ही उनकी समझ में आ गया कि अकेले दलित समाज के वोट बैंक में सामर्थ्य नहीं है कि वह उन्हें सत्ता की चौहद्दियों का स्वामिनी बना सके.इसलिए उन्होंने सर्वजन हिताए की पुरानी विरासत को अपनाया. परिणाम सामने है.'तिलक, तराजू और तलवार...' के नारे से 'हाथी नहीं गणेश...' है तक की उनकी यात्रा जिन मोड़ों से होकर गुजरी वह अपने आपमें अलग लेख का विषय है.परंतु उनके इस सियासी कायांतरण को भारतीय लोकतंत्र की जीत मानी जानी चाहिए.ऐसा मैं इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि भारतीय समाज में जातियों के अलगाव के बावजूद भाइचारे की जड़ें बहुत गहरी हैं.इस देश में एकता की धारणा हज़ारों साल पुरानी है. हर भारतीय जाने अनजाने उसे अपने मन में धारण किए रहता है.इसीलिए अलगाववादी या उत्तेजक भाषण देनेवाले एक सीमा तक ही अपना उल्लू सीधा कर पाते हैं.अंतत: उन्हें या तो स्वर बदलना होता है या किसी बड़े सियासी गुट का दामन थामना होता है. एनडीए और यूपीए के घटक दल इसका उदाहरण हैं.अपनी बोली और अपने राग अलापने के बावजूद अपने अस्तित्व के लिए उन्हें ऐसे गठजोड़ करने ही पड़ते हैं.इसीलिए उत्तर प्रदेश का मौजूदा बदलाव सुकून देता है. इससे पहले बिहार में हम इसकी भूमिका बनती देख चुके हैं. बिहार में लालू का एमवाई (मुसलमान और यादव) समीकरण था तो उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह इसी समीकरण के सहारे राज कर रहे थे.
मायावती ने एक नई रणनीति अपनाकर यह दिखा दिया है कि धार्मिक उन्माद फैलाए बिना भी किस तरह से चुनावी राजनीति को न सिर्फ़ प्रभावित किया जा सकता है बल्कि परिवर्तन की एक नई बयार चलाई जा सकती है. नतीजों पर ग़ौर करें तो बहुजन समाज पार्टी ने पूरे उत्तर प्रदेश में अपनी पैठ बढ़ाई है और उम्मीदवारों की पृष्ठभूमि बताती है कि सभी धर्मों और जातियों के लोगों के वोट बसपा को मिले हैं.जैसा जनाधार इस बार बसपा को मिला है ऐसा किसी ज़माने में कांग्रेस का हुआ करता था लेकिन उत्तर प्रदेश दशकों तक एक छत्र सरकार चलाने वाली कांग्रेस अपनी लाख कोशिशों के बावजूद अपनी पैठ बढ़ाने में नाकाम रही है. राज्य के इस जातीय समीकरण को मायावती ने समय रहते भाँप लिया और जो नया समीकरण पेश किया उसने सबकी आँखें खोल दीं. यह दिलचस्प सवाल है कि इस तरह की रणनीति अपनाने और राजनीतिक हिम्मत दिखाने का ख़याल किसी और पार्टी में क्यों नहीं आया जबकि कांग्रेस, भाजपा और समाजवादी पार्टी, सभी दल बड़े-बडे नेताओं और रणनीतिकारों से भरे पड़े हैं.
बड़ी चुनौतियाँ
कोई शक नहीं कि मायावती ने राजनीति को एक नई दिशा दी है लेकिन चुनावी नतीजे उनके पक्ष में आने के साथ ही उनके लिए अनेक बड़ी चुनौतियाँ भी सामने आ खड़ी हुई हैं.सबसे बड़ी चुनौती यही है कि जिस परिवर्तन की शुरुआत उन्होंने की है उसे आगे बढ़ाना बहुत ही मुश्किलों भरा रास्ता है और उनमें प्रमुख होंगी - सामाजिक समरसता क़ायम करना और भ्रष्टाचार जैसे दैत्य का मुक़ाबला करना.मायावती की असली कसौटी यही होगी कि वह स्वच्छ प्रशासन देने में किस हद तक कामयाब हो पाती हैं और जातीय समीकरण एक बार अपने पक्ष में भुनाने के बाद कामयाबी का बस यही पैमाना होगा क्योंकि बहुत देर तक इस तरह के लोगों को धर्म या जाति जैसे मुद्दों पर अपने साथ नहीं रखा जा सकता जब तक कि कोई सरकार लोगों की बेहतरी के लिए ठोस काम नहीं करे. उत्तर प्रदेश में भ्रष्टाचार और सार्वजनिक सेवाओं में कामचोरी इस हद तक अपनी जड़ें जमा चुके हैं कि उन्हें ख़त्म करना तो दूर, उनमें कुछ कमी करना और सरकारी कर्मचारियों की सोच में कुछ बदलाव लाना भी अंगद के पैर को हिलाने से कम नहीं होगा.भारतीय समाज में सदियों से चली आ रही जाति प्रथा ने सामाजिक समरसता को दीमक की तरह चाटा है. मायावती की पार्टी का जनाधार हालाँकि दलित समुदाय है लेकिन ब्राहमण वर्ग को भी साथ लाकर उन्होंने इस सामाजिक समरसता की जो बयार चलाई है उसे आगे बढ़ाना भी टेढ़ी खीर होगी.अपनी सरकार का बहुमत बनाए रखना भी मायावती के लिए एक बडी़ चुनौती होगी.मायावती को सरकार बनाने के लिए किसी अन्य दल के समर्थन की ज़रूरत नहीं है जिसका मतलब है कि सभी विपक्ष में बैठेंगे और इसी उधेड़-बुन में लगे रहेंगे कि मायावती के बहुमत को किस तरह से कमज़ोर किया जाए.ऐसे में मायावती को अपने विधायकों की राजनीतिक महत्वकांक्षाओं को लगातार पूरा करते रहना होगा और इसमें ज़रा सी भी ढील हुई तो ख़तरा बढ़ सकता है.
संगठनात्मक ढाँचा
बहुजन समाज पार्टी का वजूद दो दशक से भी ज़्यादा पुराना हो गया है लेकिन अभी तक उसका कोई ठोस संगठनात्मक ढाँचा उभककर नहीं आया है. पूरी पार्टी किसी ज़माने में सिर्फ़ काँशीराम के इर्दगिर्द घूमती थी और अब वो स्थान मायावती ने ले लिया है.जिस परिपक्व राजनीतिक सोच का परिचय मायावती और उनके सहयोगी नेताओं ने इस चुनाव में दिया है अगर उसे एक सुगठित संगठन का साथ मिल जाए तो उससे एक नया राजनीतिक युग शुरू हो सकता है जो बेशक राष्ट्रीय स्तर पर भी अपना प्रभाव छोड़ेगा.पिछले एक दो-साल के समय पर नज़र डालें तो कई नामी नेता बसपा छोड़कर गए थे और उनका यही आरोप था कि मायावती अपनी पार्टी में लोकतांत्रिक संगठन बनाने में ज़्यादा दिलचस्पी नहीं लेतीं. इसमें कोई शक नहीं कि मायावती के व्यक्तित्व का करिश्मा आज भारी वोट खींचने की क्षमता रखता है लेकिन इस जनाधार को मज़बूती देने के लिए पार्टी की सत्ता का विकेंद्रीकरण भी ज़रूरी होगा.
बहुजन समाज पार्टी की नेता मायावती ने चौथी बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली. पचास सदस्यीय मंत्रिमंडल में उनके अलावा 19 कैबिनेट मंत्रियों, 21 राज्यमंत्रियों (स्वतंत्र प्रभार) और 9 राज्यमंत्रियों को भी राज्यपाल टीवी राजेश्वर ने शपथ दिलाई.मायावती ने मंत्रिमंडल में ऊँची जातियों के अलावा पिछड़े वर्ग की छोटी-छोटी जातियों को भी स्थान दिया है. स्वामी प्रसाद मौर्य विधानसभा का चुनाव हार गए थे, फिर भी उन्हें मंत्रिमंडल में स्थान दिया गया है, क्योंकि वो महत्वपूर्ण पिछड़ी जाति से आते हैं. मायावती के बेहद करीबी सतीश मिश्रा को मंत्री नहीं बनाया गया है. सतीश मिश्रा राज्यसभा के सदस्य हैं और माना जा रहा है कि वो संगठन में अहम भूमिका निभाएँगे. बाकी 402 सीटों पर हुए चुनाव में बसपा को 206 सीटों पर जीत हासिल हुई है. पिछले चुनाव में पार्टी को 99 सीटें मिली थीं.बसपा नेता मायावती ने शुक्रवार को पत्रकार सम्मेलन में पार्टी की सफलता को बसपा की विचारधारा की जीत बताया था.उनका कहना था, " उत्तर प्रदेश की आम जनता ने साबित किया है कि उसका लोकतंत्र में गहरा विश्वास है. पिछले 14 वर्षों में पहली बार किसी एक पार्टी ने पूर्ण बहुमत के आधार पर सरकार नहीं बनाई है. जनता ने जाति और धर्म से ऊपर उठकर मतदान किया है मायावती के सामने एक बड़ी चुनौती ये है कि उन्हें भ्रष्टाचार के आरोपों से ख़ुद को बेदाग़ साबित करना होगा. निवर्तमान मुख्यमंत्री मुलायम सिंह जाते-जाते राज्यपाल को ताज कॉरीडोर मामले में मायावती पर लगे आरोपों का पत्र थमा गए. हालाँकि अब सरकार मायावती की होगी और वह इस मामले से बख़ूबी निपट सकेंगी लेकिन प्रदेश को भ्रष्टाचार की जकड़ से मुक्त करना उनकी बड़ी ज़िम्मेदारी होगी.ख़ुद उन पर इस तरह के भी आरोप लगते रहे हैं कि उनकी पार्टी का टिकट खुले रूप में बिकता है. हो सकता है इसमें कोई सच्चाई ना हो लेकिन धुँआ तो वहीं उठता है जहाँ कुछ आग होती है, हालाँकि कोई भी राजनीतिक दल इस तरह के आरोपों से मुक्त नहीं है मगर जितनी ख़बरें इस मामले में बसपा के बारे में फैली, उतनी किसी और दल के बारे में नहीं. यह बात मानी जा सकती है कि हर राजनीतिक दल को चलाने के लिए धन की ज़रूरत होती है तो उसके लिए ईमानदार और पारदर्शी तरीके से चंदा इकट्ठा करने का रास्ता शायद ज़्यादा असरदार और टिकाऊ साबित होगा.मायावती को ख़ासतौर से प्रशासनिक मशीनरी को सुचारू और कार्यशील बनाना होगा और पाँच साल तक वह बदले की राजनीति से ऊपर उठकर अगर प्रदेश और लोगों की भलाई के लिए नीतियाँ बनातीं और योजनाएँ लागू करती रहीं तो उनके राजनीतिक सपने को पूरा होने और पूरे देश की एक राजनीतिक ताक़त बनने से कोई नहीं रोक सकता.
1 comment:
aapka blog jagat me swagat hai,
dar asal main pahli baar aapke blog pe aya hun..
sayad aab aana- jana laga rahega.
Girindra
www.anubhaw.blogspot.com
girindranath@gmail.com
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