Monday, 25 June 2007
बिहार की सड़कें या हेमामालिनी के गाल !
गुर्जर महापंचायत की धमकी
राष्ट्रपति भवन या राजनीतिक भवन !
जनता का राष्ट्रपति कहलाना चाहूंगा: कलाम
राष्ट्रपति एपीजे कलाम अपने पांच वर्ष के कार्यकाल को जनता के राष्ट्रपति के रूप में याद किया जाना पसंद करेगे। कलाम ने दूसरे कार्यकाल के लिए चुनाव नहीं लड़ने के फैसले को सही ठहराते हुए कहा कि वह एक राजनीतिक प्रक्रिया में पक्ष नहीं बनना चाहते और राष्ट्रपति भवन की छवि नहीं खराब करना चाहते। उन्होंने लाभ के पद विधेयक को लौटाने को अपने कार्यकाल का सबसे मुश्किल फैसला माना। कलाम ने एक विशेष बातचीत में उक्त बातें कहीं। पिछले पांच साल के दौरान राजनीतिज्ञों के साथ अनुभव पूछने पर कलाम ने कहा कि पहले उनसे मेरा रिश्ता वैज्ञानिक के रूप में रहा है और उसके बाद राष्ट्र प्रमुख के रूप में। उन्होंने कहा कि भारत में राजनीतिक राजनीति और विकासात्मक राजनीति दो तरह की चीजें हैं। राजनीतिक राजनीति चुनावों से संबंधित है और वह भी महत्वपूर्ण है। विकासात्मक राजनीति देश के आर्थिक विकास से संबंधित है। कलाम ने कहा कि इसीलिए वह चाहेंगे कि कोई राजनीतिक दल सामने आकर यह कहे कि वह पांच साल में अमुक उपलब्धियां हासिल कर दिखाएगा तो दूसरा कहे कि वह ऐसा तीन साल में कर देगा। उन्होंने कहा कि मैं चाहता हूं कि राजनीतिक राजनीति 30 प्रतिशत हो और 70 प्रतिशत विकासात्मक राजनीति हो। इस समय स्थिति उलट है। दूसरे कार्यकाल के लिए चुनाव नहीं लड़ने के उनके बयान के बारे में पूछने पर कलाम ने कहा कि वह नहीं चाहते थे कि राष्ट्रपति भवन को एक राजनीतिक प्रक्रिया में घसीटा जाए। जब आपकी दिलचस्पी होती है और आप राष्ट्रपति भी हो तो आपको एक उम्मीदवार के रूप में प्रचार करना होगा। उन्होंने कहा कि जब हम किसी राष्ट्रपति का चुनाव करते हैं तो यह राजनीतिक प्रक्रिया नहीं होती। मैं किसी राजनीतिक प्रक्रिया का पक्ष नहीं बनना चाहता। कलाम ने कहा कि मैं राष्ट्रपति भवन का नाम नहीं बदनाम करना चाहता, जिसे मेरे कार्यकाल के दौरान जनता का भवन बना दिया गया है। कलाम का पांच साल का कार्यकाल 24 जुलाई को पूरा होने जा रहा है। राष्ट्रपति के रूप में उपलब्धियों के बारे में पूछने पर उन्होंने कहा कि राष्ट्रपति भवन में हर साल पांच से दस लाख लोग आते हैं। केवल बड़े लोग ही नहीं बल्कि आम लोग भी। मैं राष्ट्रपति भवन को राजनीतिक भवन नहीं बनाना चाहता। राष्ट्रपति ने अपने कार्यकाल में सबसे मुश्किल वक्त लाभ का पद विधेयक को संसद को लौटाने को माना। उन्होंने कहा कि स्वाभाविक रूप से लाभ का पद विधेयक को लौटाने का फैसला सबसे कठिन था। संविधान के तहत राष्ट्रपति ऐसा कर सकता है, लेकिन ऐसा करने वाला मैं पहला राष्ट्रपति हूं। उन्होंने कहा कि देश में बहस भी छिड़ गई थी और संसद ने कुछ दिशानिर्देश बनाने के बारे में फैसला किया था। राष्ट्रपति ने पिछले साल मई में लाभ के पद विधेयक को वापस लौटा दिया था, जिसमें 56 पदों को विधेयक की जद से बाहर रखा गया था। कलाम ने संसद से विधेयक पर पुनर्विचार करने के लिए कहा था। साथ ही कहा कि इस विधेयक में व्यापक पात्रता तय होनी चाहिए तथा इसे उचित एवं तार्किक बनाने की जरूरत है। उन्होंने यह भी कहा था कि विधेयक को सभी राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में स्पष्ट एवं पारदर्शी ढंग से लागू किया जाना चाहिए। विधेयक को वापस करते हुए कलाम ने संसद के दोनों सदनों से कहा था कि वे इसे पूर्व तिथि से लागू करने पर विचार करें। उन्होंने कहा कि दूसरी सबसे मुश्किल घड़ी यह थी कि देश में जैव ईधन का उपयोग कैसे शुरू किया जाए। उन्होंने कहा कि अब सरकार पेट्रोल एवं डीजल में दस प्रतिशत जैव ईधन को मिलाने पर सहमत हो गई है। राष्ट्रपति ने उम्मीद जताई कि कार निर्माता अपने इंजनों में ऐसी तब्दीली लाएंगे कि जैव ईधन के प्रतिशत को बढ़ाया जा सके। गैर राजनीतिक व्यक्ति को राष्ट्रपति बनाए जाने के सुझाव के बारे में पूछने पर उन्होंने कहा कि राष्ट्रपति एक अच्छा इंसान होना चाहिए और ऐसा होकर ही वह चाहे पुरुष हो या महिला राष्ट्रपति भवन को संपन्न बना सकेगा। कलाम ने इन सवालों को टाल दिया कि देश का अगला राष्ट्रपति कौन होगा। उन्होंने कहा कि मेरा मानना है कि राष्ट्रपति चाहे पुरुष आए या महिला वह नैसर्गिक आत्मविश्वास के साथ आएगा और राष्ट्रपति भवन को संपन्न बनाएगा। कलाम ने कहा कि पूर्व के सभी राष्ट्रपतियों को देखें तो पाएंगे कि हर एक की अलग-अलग क्षेत्रों में क्षमता थी। एक दार्शनिक था तो एक शिक्षक कोई महान राजनेता था तो कोई न्यायपालिका में महत्वपूर्ण योगदान कर चुका था। यह पूछने पर कि अपने कार्यकाल के दौरान उन्होंने दो प्रधानमंत्रियों के साथ काम किया दोनों के साथ उनके राजनीतिक समीकरण कैसे थे, कलाम ने कहा कि दोनों प्रधानमंत्रियों की अपनी-अपनी नैसर्गिक क्षमता है। एक निर्णय लेने की प्रक्रिया का महारथी था तो एक विशेषज्ञ है। उन्होंने कहा कि कभी-कभी एक व्यक्ति के पास निर्णय लेने की क्षमता होती है तो दूसरे में विशेषज्ञता। दोनों का मेल बेहतरीन होगा। कलाम ने सुझाव दिया कि भारत को त्रि-आयामी रणनीति के जरिये सौर ऊर्जा, परमाणु ऊर्जा तथा जैव ईधन पर ध्यान केंद्रित करते हुए ऊर्जा सुरक्षा के बजाय ऊर्जा आत्मनिर्भरता का सोचना चाहिए। उन्होंने कहा कि सौर ऊर्जा बहुतायत में है, जबकि सौर सेल्स की दक्षता फिलहाल 15 प्रतिशत ही है। लेकिन उन्होंने उम्मीद जताई कि नैनो टेक्नालाजीज के जरिये पांच साल में इसे बढ़ाकर 45 प्रतिशत किया जा सकेगा। परमाणु ऊर्जा के बारे में कलाम ने कहा भारत में यूरेनियम के भंडार सीमित हैं और इसीलिए इसकी आपूर्ति के लिए हमें तमाम तरह के लोगों से समझौते करने पड़ते हैं। उन्होंने कि भारत में थोरियम के भंडार विश्व में सबसे अधिक है और हमें थोरियम आधारित ऊर्जा पर अधिक ध्यान देना चाहिए। पेट्रोलियम उत्पादों के आयात पर निर्भरता को कम करने के लिए जैव ईधनों के मिश्रण को बढ़ाने की बात की। फिलहाल पेट्रोल में दस प्रतिशत एथेनाल मिलाने की प्रक्रिया शुरू की गई है, जबकि डीजल में अखाद्य तेल का मिश्रण करने के प्रयोग चल रहे हैं। राष्ट्रपति ने महिलाओं की जबर्दस्त हिमायत करते हुए कहा कि आज महिलाएं संसद और विधानसभाओं में 33 प्रतिशत आरक्षण पाने के लिए संघर्ष कर रही हैं और आप सब उसमें मदद कर सकते हैं। उन्होंने कहा कि उन्होंने खुद देखा है कि जिन पंचायतों में सरपंच महिला है, वह बढि़या काम कर रही हैं। उन्होंने कहा कि जब पंचायतों में महिला बेहतर काम कर सकती हैं तो विधानसभाओं और संसद में क्यों नहीं। कलाम ने राष्ट्रपति पद का कार्यकाल समाप्त होने के बाद उनकी योजनाओं के बारे में पूछे जाने पर कहा कि वह देश के विभिन्न विश्वविद्यालयों में विद्यार्थियों को पढ़ाएंगे। यह पूछने पर कि क्या वह चेन्नई जाकर पढ़ाएंगे, उन्होंने कहा कि चेन्नई ही क्यों-मैं कई जगहों पर जाऊंगा-ग्रामीण विश्वविद्यालयों, प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालयों अंतरिक्ष एवं अनुसंधान विश्वविद्यालयों तथा नालंदा विश्वविद्यालय में भी। सकल घरेलू उत्पाद की नौ प्रतिशत विकास दर पर बहुत उत्साह नहीं दिखाते हुए कलाम ने कहा कि केवल जीडीपी के आकलन को आर्थिक विकास का संकेतक नहीं माना जाना चाहिए। मैं राष्ट्रीय संपन्नता इंडेक्स की सलाह देता हूं। उन्होंने कहा कि एनपीआई में जीडीपी गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले लोगों की संख्या में कटौती और सामाजिक मूल्य शामिल हैं। सामाजिक मूल्य की अवधारणा संयुक्त भारतीय परिवार की प्राचीन संस्थान से निकली है। कलाम ने यह बात इस सवाल के जवाब में कही कि क्या तेज आर्थिक विकास के फायदे समाज के अत्यंत गरीब लोगों तक पहुंच रहे हैं। राष्ट्रपति ने कहा कि जीडीपी का फायदा उनकी पसंदीदा परियोजना पूरा (ग्रामीण क्षेत्रों में शहरी इलाकों जैसे सुविधाएं मुहैया कराना) के जरिए जनता तक पहुंचाया जा सकता है। उन्होंने कहा कि वह कार्यकाल पूरा होने के बाद पूरा परियोजना के लिए काम करेंगे। शहरी क्षेत्र के लोगों को मिलने वाली सुविधाएं ग्रामीण क्षेत्र के लोगों को क्यों नहीं दी जा सकतीं। कलाम ने मीडिया से कृषि क्षेत्र के विकास में सक्रिय भूमिका निभाने के लिए कहा और कृषि क्षेत्र को देश के 65 करोड़ लोगों की जीवनरेखा बताया।
खतरे में राष्ट्रपति पद की गरिमा !
देश में राष्ट्रपति के चुनाव को लेकर जैसा राजनीतिक माहौल बना दिया गया है और विभिन्न राजनीतिक समूह जिस प्रकार टकराव की स्थिति में आ खड़े हुए हैं वह भारतीय लोकतंत्र के लिए शुभ नहीं। देश के प्रथम नागरिक के रूप में राष्ट्रपति के निर्वाचन के लिए राजनीतिक दलों और खासकर सत्तापक्ष को जिस तरह कार्य करना चाहिए वैसा बिल्कुल भी नहीं किया गया। परिणाम यह हुआ कि एक असमंजस का माहौल कायम हो गया। मौजूदा राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम की ओर से दूसरे कार्यकाल के लिए अपनी दावेदारी पेश करने का संकेत देने और ऐसी स्थिति में उपराष्ट्रपति भैरो सिंह शेखावत द्वारा उनका समर्थन किए जाने की घोषणा से राजनीतिक माहौल में जो गर्मी आई थी वह तो समाप्त हो गई, लेकिन बेहद अप्रिय तरीके से। संप्रग और वामदलों के नेताओं ने अब्दुल कलाम के खिलाफ तीखी टिप्पणियां करके जिस तरह उनके प्रति असम्मान प्रदर्शित किया उसकी कहीं कोई आवश्यकता नहीं थी। राष्ट्रपति को यह नसीहत देना राजनीतिक शिष्टाचार के बिल्कुल खिलाफ है कि वह दूसरी पारी का ख्वाब न देखें। शरद पवार जैसे मंझे राजनेता ने जिस तरह क्रिकेट की भाषा में राष्ट्रपति कलाम की पारी खत्म होने की बात कही उससे इस पद की गरिमा गिरी। आखिर मौजूदा राष्ट्रपति को कोई इस तरह की सलाह कैसे दे सकता है? शरद पवार और साथ ही लालू यादव की टिप्पणियों से यह साफ हो गया कि आज के राजनेता राष्ट्रपति पद के प्रत्याशियों अर्थात भावी राष्ट्र प्रमुख के प्रति कैसा भाव रखते हैं और उनकी कितनी कद्र करते हैं? हमें यह नहीं भूलना चाहिए राष्ट्रपति पद के लिए जो गंभीर प्रत्याशी सामने आए है उनमें से ही कोई एक राष्ट्र प्रमुख बनेगा। राष्ट्रपति पद पर आसीन होने के उपरांत उसके प्रति सभी को राजनीतिक शिष्टाचार का प्रदर्शन करना होगा। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि मौजूदा समय इस शिष्टाचार का प्रदर्शन करने के बजाय उसकी धज्जिायां उड़ाई जा रही है। एक ओर जहां संप्रग के घटकों के नेताओं ने राष्ट्रपति कलाम पर कटाक्ष करने में संकोच नहीं बरता वहीं दूसरी ओर कांग्रेस ने इस पद की अपनी उम्मीदवार प्रतिभा पाटिल को यह हिदायत देने में देर नहीं की कि वह सार्वजनिक मंचों से ऐसा कुछ न कहे जिससे संप्रग का चुनावी एजेंडा प्रभावित हो। उन्हे यह हिदायत महिलाओं में पर्दा प्रथा संबंधी उनके एक बयान के संदर्भ में दी गई। इस सबसे समाज में यही संदेश गया कि प्रतिभा पाटिल कांग्रेस के नेतृत्व वाले संप्रग शासन की कठपुतली बनकर राष्ट्रपति भवन में प्रवेश करेंगी। यदि वह राष्ट्रपति बनने में सफल होती है, जैसा कि आज के दिन नजर भी आ रहा है तो उनके लिए इस संवैधानिक पद की गरिमा बरकरार रखना कठिन कार्य होगा। उन पर पहले दिन से यह दबाव होगा कि वह स्वतंत्र रूप से निर्णय लेने में सक्षम राष्ट्र प्रमुख दिखें। वर्तमान में तो ऐसा दिख रहा है कि उन्हे सार्वजनिक मंचों से अपना भाषण कांग्रेस से अनुमति लेकर देना होगा। भविष्य में जो भी हो, यह तथ्य है कि अतीत में कांग्रेस के कई कठपुतली नेता राष्ट्रपति पद पर आसीन हो चुके हैं। राष्ट्रपति चुनाव की गहमागहमी के बीच प्रतिभा पाटिल पर एक के बाद एक जैसे आरोप लगे वे हतप्रभ करने वाले है। ये आरोप उनकी दावेदारी को कमजोर करते है। उन पर एक आरोप यह है कि उन्होंने हत्या के मामले में फंसे अपने भाई को बचाने के लिए अपने पद का इस्तेमाल किया। उन पर दूसरा आरोप अपने स्वामित्व वाली चीनी मिल के लिए बैंक से हासिल किए गए करोड़ों रुपये के ऋण को न लौटाने का है। फिलहाल ये आरोप राजनीति से प्रेरित नजर आते हैं, लेकिन आम जनता के मन में यह सवाल तो उठेगा ही कि इन आरोपों में कोई सच्चाई तो नहीं है? चीनी मिल के लिए प्राप्त ऋण को न लौटाने का मामला तो मिल और बैंक के बीच का वाणिज्यिक प्रकरण नजर आता है और इसका प्रतिभा पाटिल के राजनीतिक जीवन से कोई लेना-देना नहीं भी हो सकता, लेकिन हत्या के आरोपी अपने भाई को बचाने का मामला गंभीर रूप ले सकता है। ध्यान रहे कि प्रतिभा पाटिल पर ऐसा आरोप लगाने वाली महिला हत्या का शिकार बने जलगांव कांग्रेस जिलाध्यक्ष की विधवा हैं। वह अपने आरोपों के सिलसिले में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी से मिलकर पहले भी गुहार लगा चुकी है। कुछ केंद्रीय मंत्रियों ने प्रतिभा पाटिल पर लगाए गए आरोपों को दुर्भाग्यपूर्ण करार दिया है, लेकिन क्या यह महत्वपूर्ण नहींकि इस हत्याकांड के अभियुक्तों को राजनीतिक कारणों से बचाने के आरोपों के चलते ही मुंबई हाईकोर्ट ने मामले की जांच सीबीआई से कराने के आदेश दिए थे? प्रतिभा पाटिल पर लगे आरोपों की सच्चाई कुछ भी हो, ऐसा लगता है कि कांग्रेस ने राष्ट्रपति पद के लिए उन्हे उम्मीदवार बनाने का फैसला जल्दबाजी में या किसी मजबूरी में किया और इसके पूर्व वह उनके राजनीतिक जीवन का सही तरह से आकलन भी नहीं कर सकी। भले ही आज कांग्रेस प्रतिभा पाटिल पर लगे आरोपों को विरोधियों की साजिश बता कर खारिज कर रही हो, लेकिन यह कांग्रेस के रणनीतिकारों की भूल का नतीजा है कि पार्टी को बचाव की मुद्रा अपनानी पड़ रही है। कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों ने प्रतिभा पाटिल का राष्ट्रपति के उम्मीदवार के रूप में नामांकन तो करा दिया है, लेकिन यदि किसी कारण उनकी दावेदारी कमजोर पड़ती है या फिर उनसे जुड़े विवादों का दौर नहीं समाप्त होता तो यह उनके साथ-साथ संप्रग के लिए भी शर्मनाक होगा। प्रतिभा पाटिल पर लगे आरोपों को लेकर पक्ष-विपक्ष के नेताओं के बयान यही संकेत देते हैं कि राष्ट्रपति चुनाव को लेकर राजनीतिक दांव-पेंच का दौर जारी रहेगा। इससे यदि किसी की क्षति होगी तो राष्ट्रपति पद की गरिमा की, जबकि राजनेताओं की पहली कोशिश इस पद की गरिमा बरकरार रखने की होनी चाहिए। राष्ट्रपति की उम्मीदवार प्रतिभा पाटिल पर लगे आरोपों ने यह साबित कर दिया कि आज के दौर में ऐसे राजनेता मिलना मुश्किल हैं जो किसी तरह के आरोपों के घेरे में न हों। इसका एक अर्थ यह भी है कि राष्ट्रपति पद के लिए स्वच्छ छवि के उम्मीदवार को खोज निकालना कठिन है। यह स्थिति भारतीय राजनीति की विडंबना को ही उजागर करती है। इस संदर्भ में राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम एक अपवाद कहे जाएंगे। यह दु:खद है कि बेहद साफ-सुथरी छवि और लोकप्रिय होने के बाद भी कलाम के नाम पर आम सहमति बनाना तो दूर की बात रही, उलटे उन पर कटाक्ष किए गए और वह भी केंद्रीय मंत्रियों की ओर से। बावजूद इस सबके अब्दुल कलाम ने जिस तरह राष्ट्रपति पद और भवन को विवादों से दूर रखने के उद्देश्य से दोबारा चुनाव लड़ने से इनकार कर दिया उससे उनकी शालीनता और हृदय की विशालता का पता चलता है। इसमें संदेह नहीं कि उन्होंने राष्ट्रपति की गरिमा को बढ़ाने के साथ-साथ इस पद को लोकप्रिय भी बनाया। अब यह समय ही बताएगा कि आगामी राष्ट्रपति ऐसा करने में सफल रहते हैं या नहीं? यह सवाल इसलिए, क्योंकि फिलहाल राजनीतिक दल राष्ट्रपति पद की गरिमा की परवाह करते नहींदिखते।
कलाम को ठेस पहुंचाने की मंशा नहीं थी: दासमुंशी
सरकार ने कहा कि तीसरे मोर्चे द्वारा दूसरे कार्यकाल के लिए चलाए जा रहे अभियान को लेकर राष्ट्रपति कलाम को ठेस पहुंचाने का उसका कोई इरादा नहीं था, लेकिन यह दुर्भाग्यजनक है कि उनका नाम विवाद में घसीटा गया। संसदीय कार्यमंत्री प्रियरंजन दासमुंशी ने शनिवार को कहा कि राष्ट्रपति तब तक राष्ट्रपति हैं जब तक वह पद पर हैं। हम उनके पद का सम्मान करते हैं और कलाम बहुत ही सम्मानित हैं। दासमुंशी का यह बयान तीसरे मोर्चे की उस टिप्पणी पर आया, जिसमें कहा गया था कि कलाम कुछ केंद्रीय मंत्रियों के बयानों से आहत हैं। दासमुंशी ने कहा कि मैंने जो कुछ भी कहा वह यह था कि यदि कोई यह घोषणा कर चुका हो कि वह चेन्नई चला जाएगा और अध्यापन शुरू करेगा, अचानक कुछ नेताओं से मिलने के बाद वह यह कहता है कि यदि जीत सुनिश्चित हो तो वह चुनाव लड़ सकता है।
प्रतिभा पाटिल ने पर्चा भरा
भारत में राष्ट्रपति पद के लिए सत्तारुढ़ संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) और वामपंथी दलों की उम्मीदवार प्रतिभा पाटिल ने शनिवार को अपना नामांकन पत्र दाख़िल कर दिया. नामांकन के समय राजस्थान की पूर्व राज्यपाल प्रतिभा पाटिल के साथ प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी भी थी. प्रतिभा पाटिल ने लोकसभा सचिवालय में जाकर अपना नामांकन भरा.राष्ट्रपति चुनाव के लिए नामांकन पत्र दाख़िल करने की आख़िरी तारीख़ 30 जून है. ज़रूरी हुआ तो मतदान 19 जुलाई को होगा और मतगणना 21 जुलाई को होगी.मौजूदा राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने शुक्रवार को स्पष्ट कर दिया था कि वे दूसरे कार्यकाल के लिए चुनाव नहीं लड़ेंगे. हालाँकि कुछ दिन पहले तीसरे मोर्चे के नेताओं के साथ बैठक में उन्होंने कहा था कि अगर जीत सुनिश्चित हो तो वे चुनाव लड़ सकते हैं.लेकिन तीसरे मोर्चा उनके नाम पर आम सहमति नहीं जुटा पाया. उम्मीद है कि अब प्रतिभा पाटिल के सामने मुख्य प्रतिद्वंद्वी होंगे निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में उप राष्ट्रपति भैरोसिंह शेखावत.राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन(एनडीए) ने तो शेखावत को समर्थन देने की घोषणा कर रखी है लेकिन तीसरे मोर्चे ने अभी अपना रुख़ स्पष्ट नहीं किया है. शुक्रवार को भारतीय जनता पार्टी ने अपील की थी कि राष्ट्रपति कलाम के इनकार के बाद तीसरे मोर्चे को भैरोसिंह शेखावत का समर्थन करना चाहिए. लेकिन अभी तक तीसरे मोर्चे की ओर से इस बारे में कोई बयान नहीं आया है.नामांकनइस बीच सत्तारुढ़ यूपीए और वामपंथी दलों के कई शीर्ष नेताओं की मौजूदगी में प्रतिभा पाटिल ने अपना नामांकन दाख़िल कर दिया. प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के अलावा उनके साथ लालू प्रसाद यादव, शरद पवार, रामविलास पासवान, टीआर बालू और रामदास अठावले भी थे.नामांकन के समय वामपंथी नेता सीताराम येचुरी, गुरुदास दास गुप्ता और अबनी रॉय भी थे. इसके अलावा गृह मंत्री शिवराज पाटिल, विदेश मंत्री प्रणव मुखर्जी सहित मौजूदा सरकार के कई मंत्री भी वहाँ मौजूद थे.नामांकन पत्र दाखिल करने से पहले प्रतिभा पाटिल अपने परिवारजनों के साथ राजघाट गईं और महात्मा गांधी की समाधि पर फूल चढ़ाए.
उपराष्ट्रपति पद की मांग नहीं की: करुणानिधि
द्रमुक अध्यक्ष और तमिलनाडु के मुख्यमंत्री करुणानिधि ने शनिवार को उन खबरों को खारिज कर दिया, जिनमें पार्टी द्वारा उपराष्ट्रपति पद की मांग का जिक्र किया गया है। संवाददाताओं ने उनसे पूछा था कि क्या पार्टी ने उपराष्ट्रपति पद प्राप्त करने की योजना बनाई है। करुणानिधि ने कहा कि उन्हें इस बात की खुशी है कि एक महिला को राष्ट्रपति बनाने की मुहिम में उन्होंने अपना योगदान दिया। तीसरे मोर्चे के बारे में उन्होंने कहा कि उन लोगों ने खुद को यह नाम भर दे दिया है। अभी तक किसी को यह नहीं पता कि उनका नेता कौन है। कावेरी जल विवाद के बारे में उन्होंने कहा कि उन्हें इस मुद्दे के बातचीत से सुलझ जाने का विश्वास है। उन्होंने कहा कि इस बारे में सभी कदम उठाए जा रहे हैं। करुणानिधि ने कहा कि कावेरी के जल को लेकर लड़ाई 1968 में शुरू हुई और न्यायाधिकरण का अंतिम फैसला आने के बाद यह संघर्ष मील का पत्थर अर्जित कर चुका है। मदुरै विधानसभा उपचुनाव तय कार्यक्रम के मुताबिक 26 जून को नहीं कराने के लिए निर्वाचन आयोग पर दबाव डालने के बारे आई खबरों का भी उन्होंने खंडन किया। उन्होंने अन्नाद्रमुक प्रमुख जे जयललिता के इन आरोपों को भी खारिज कर दिया कि राज्य में बिजली कटौती हो रही है। उन्होंने कहा कि राज्य के पास अतिरिक्त बिजली है और यह बिजली पंजाब और महाराष्ट्र को दी जा रही है।
शेखावत 25 को दाखिल करेंगे नामांकन
उपराष्ट्रपति भैरोंसिंह शेखावत आगामी 25 जून को राष्ट्रपति पद के चुनाव के लिए नामांकन पत्र दाखिल करेंगे। राजग प्रवक्ता सुषमा स्वराज ने शनिवार को प्रेस कांफ्रेंस में यह जानकारी दी। उन्होंने बताया कि राजग की बैठक में शेखावत के नामांकन पत्र दाखिल करनेके बारे में फैसला किया गया। बैठक में राजग संयोजक जार्ज फर्नाडीस एवं लोकसभा में विपक्ष के नेता लालकृष्ण आडवाणी सहित विभिन्न नेताओं ने भाग लिया।
Thursday, 21 June 2007
उम्रदराज को ही मिलती है ऊंची कुर्सी !
'सेक्स ट्वाय' : कंडोम का नया अवतार
मध्य प्रदेश में कंडोम के एक नए पैकेट ने विवाद पैदा कर दिया है. इस पैकेट में कंडोम के साथ कंपनी उत्तेजना पैदा करने वाला 'उपकरण' मुफ्त में दे रही है. यह 'उपकरण' दरअसल एक 'वाइब्रेटिंग रिंग' यानी कंपन पैदा करने वाला छल्ला है.विवाद है कि क्या इसे 'सेक्स ट्वाय' माना जाना चाहिए?दरअसल, भारत में 'सेक्स टॉय' की बिक्री प्रतिबंधित है और इसे बेचने के लिए दो साल तक की सज़ा और दो हज़ार रुपए तक का ज़ुर्माना हो सकता है. मध्य प्रदेश की भारतीय जनता पार्टी सरकार ने कथित 'सेक्स ट्वाय' बेचे जाने की शिकायतों की जाँच कर रही है.लेकिन ऐसे उपभोक्ता भी हैं जो इससे ख़ुश हैं और मानते हैं कि इस पर रोक नहीं लगाई जानी चाहिए. दिलचस्प तथ्य यह है कि यह उत्पाद बेचने वाली कंपनी हिन्दुस्तान लेटेक्स लिमिटेड कोई बहुराष्ट्रीय या निजी कंपनी नहीं बल्कि भारत सरकार की एक कंपनी है.
Sunday, 17 June 2007
मायावती : दलितों की नई उम्मीद
उत्तर प्रदेश के इन चुनावों ने देश की राजनीतिक और सामाजिक स्थिति में बड़े परिवर्तन के संकेत दिए हैं. मायावती ने जिस तरह दलितों और अगड़ी जातियों में तालमेल का अदभुत रसायन तैयार किया है, वह अपने आपमें मिसाल है.इससे न केवल उन्हें बहुमत मिला बल्कि जात-पात विहीन समाज की स्थापना के सपने को भी नींव हासिल हुई.कहने की ज़रूरत नहीं है, ये वहीं मायावती हैं जिन्होंने कभी नक्सलवादियों के मशहूर नारे तिलक, तराजू और तलवार... को अपना लिया था.उस समय लगता था कि जातियों में बंटे भारतीय समाज में बिखरी पड़ी अलगाव की लकीरों को निहित स्वार्थ में वे गहरा करने में जुटी पड़ी हैं.पर जल्दी ही उनकी समझ में आ गया कि अकेले दलित समाज के वोट बैंक में सामर्थ्य नहीं है कि वह उन्हें सत्ता की चौहद्दियों का स्वामिनी बना सके.इसलिए उन्होंने सर्वजन हिताए की पुरानी विरासत को अपनाया. परिणाम सामने है.'तिलक, तराजू और तलवार...' के नारे से 'हाथी नहीं गणेश...' है तक की उनकी यात्रा जिन मोड़ों से होकर गुजरी वह अपने आपमें अलग लेख का विषय है.परंतु उनके इस सियासी कायांतरण को भारतीय लोकतंत्र की जीत मानी जानी चाहिए.ऐसा मैं इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि भारतीय समाज में जातियों के अलगाव के बावजूद भाइचारे की जड़ें बहुत गहरी हैं.इस देश में एकता की धारणा हज़ारों साल पुरानी है. हर भारतीय जाने अनजाने उसे अपने मन में धारण किए रहता है.इसीलिए अलगाववादी या उत्तेजक भाषण देनेवाले एक सीमा तक ही अपना उल्लू सीधा कर पाते हैं.अंतत: उन्हें या तो स्वर बदलना होता है या किसी बड़े सियासी गुट का दामन थामना होता है. एनडीए और यूपीए के घटक दल इसका उदाहरण हैं.अपनी बोली और अपने राग अलापने के बावजूद अपने अस्तित्व के लिए उन्हें ऐसे गठजोड़ करने ही पड़ते हैं.इसीलिए उत्तर प्रदेश का मौजूदा बदलाव सुकून देता है. इससे पहले बिहार में हम इसकी भूमिका बनती देख चुके हैं. बिहार में लालू का एमवाई (मुसलमान और यादव) समीकरण था तो उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह इसी समीकरण के सहारे राज कर रहे थे.
Saturday, 16 June 2007
'दुसमय' के मुख्य पात्र : नंदीग्राम-सिंगूर
नंदीग्राम पर रिपोर्ट पेश की
पश्चिम बंगाल सरकार ने कोलकाता हाई कोर्ट में शुक्रवार को नंदीग्राम पर स्थिति रिपोर्ट पेश की। सरकार ने मुख्य न्यायाधीश एस. एस.निजर की अध्यक्षता वाली 2 सदस्यीय बेंच के सामने अपनी रिपोर्ट पेश की। बेंच ने प्रशासन से सूचना देने को कहा था कि उसने नंदीग्राम में शांति और आर्थिक गतिविधियां बहाल करने के लिए क्या किया है। नंदीग्राम में सेज स्थापित करने के खिलाफ आंदोलन में पुलिस ने गोलीबारी की थी, जिसमें 14 मारे गए थे। रिपोर्ट में कहा गया है कि नंदीग्राम में स्थिति में सुधार हुआ है और आर्थिक गतिविधियां पटरी पर लौट रही हैं। साथ ही हिंसक घटनाओं के बाद घर छोडकर चले गए लोगों को वापस लाने की कोशिशें चल रही हैं।
सिंगूर में भूमि लौटाना संभव नहीं: बुद्धदेव
पश्चिम बंगाल के सीएम बुद्धदेव भट्टाचार्य ने तृणमूल कांग्रेस की मांग पर टाटा मोटर्स की लखटकिया कार प्रोजेक्ट के लिए अधिग्रहित की गई जमीन किसानों को वापस करने से इनकार किया है। हालांकि उन्होंने कहा कि राज्य सरकार वैकल्पिक प्रस्ताव तैयार करेगी। उधर, ममता बनर्जी ने राज्य सरकार के फैसले पर कहा कि अगर राजनीतिक इच्छाशक्ति हो तो समस्या का समाधान हो सकता है। इससे पहले राज्य कैबिनेट की कोर कमिटी की बैठक में नंदीग्राम और सिंगुर मामले की चर्चा हुई। बैठक के बाद पीडब्ल्यूडी मिनिस्टर क्षिति गोस्वामी ने बताया कि टाटा प्रोजेक्ट के लिए अधिग्रहित की गई जमीन वापस नहीं की जाएगी। सीएम बुद्धदेव भट्टाचार्य ने कोर कमिटी को बताया कि इस बाबत सीपीएम के आला नेता ज्योति बसु को भी सूचित कर दिया गया है। उद्योग मंत्री निरुपम सेन ने बसु को बताया है कि टाटा प्रोजेक्ट के लिए ली गई जमीन वापस करना मुमकिन नहीं। नंदीग्राम और सिंगुर मसले पर 4 जून को तृणमूल कांग्रेस की अध्यक्ष ममता बनर्जी और ज्योति बसु की बातचीत हुई थी। बैठक में बसु ने ममता को बताया था कि राज्य सरकार दोनों मामलों पर विचार करेगी। उस वक्त दोनों नेता ने इस मुद्दे के हल की उम्मीद जताई थी। तृणमूल कांग्रेस की नेता ममता बनर्जी ने दोहराया था कि अपनी जमीन चाहने वाले किसानों को जमीन वापस की जानी चाहिए। उन्होंने कहा था कि इस मसले पर हर दिन पार्टी का रुख नहीं बदलेगा।
नंदीग्राम में चल रही है वर्चस्व की लड़ाई
बंगाल के नंदीग्राम में प्रदर्शनकारियों पर पुलिस की गोलीबारी राज्य में वाम मोर्चा शासन के 30 वर्षों के दौरान कठोर कार्रवाई की पहली घटना नहीं है लेकिन निश्चित रूप से यह ऐसी पहली घटना है जब वामपंथी सरकार ने अपने समर्थक माने जाने वाले ग़रीब किसानों के ख़िलाफ़ ऐसी नृशंस कार्रवाई का आदेश दिया है.
ग़ौरतलब है कि सरकार के भूमि सुधार और सत्ता के विकेंद्रीकरण का फ़ायदा इसी तबके को सबसे ज़्यादा मिला है.
विश्लेषक रणबीर समतदार कहते हैं, ‘‘नंदीग्राम की घटना मार्क्सवादियों के लिए घातक साबित हो सकती है. नंदीग्राम की घटना के बाद मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य का रवैया वर्तमान संकट के लिए ज़िम्मेदार है."
समतदार कहते हैं, ‘‘साधरणतः वामपंथी पार्टियों के कार्यकर्ता और प्रशिक्षित काडर सरकार के कार्यक्रमों को नीचे तक पहुँचाते हैं लेकिन इस बार सारी योजना अधिकारियों ने बनाई और एक सुबह ग्रामीणों को बताया कि उनकी ज़मीन का अधिग्रहण किया जा रहा है.’’
मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ख़ुद स्वीकार करते हैं कि नंदीग्राम में ज़मीन अधिग्रहण की योजना में ख़ामियाँ हैं.
बिगड़ती क़ानून व्यवस्था
मुख्यमंत्री ने हाल ही में पत्रकारों से कहा, "मैं मानता हूँ हमने ग़लती की, इसलिए अगर नंदीग्राम के लोग केमिकल हब से होने वाले फ़ायदों से सहमत नहीं हैं तो हम उन पर ये परियोजना नहीं थोपेंगे. हम इसे कहीं और स्थानांतरित कर देंगे."
लेकिन इस तरह के बयान के बाद भी मुख्यमंत्री ने नंदीग्राम में इतनी बड़ी संख्या में सुरक्षाकर्मियों को तैनात क्यों किया?
भट्टाचार्य का विधानसभा में कहना था, "पुलिस वहाँ ज़मीन के अधिग्रहण के लिए नहीं बल्कि बिगड़ती क़ानून व्यवस्था को नियंत्रित करने के लिए गई थी."
विश्लेषकों का कहना है कि नंदीग्राम में स्थानीय मार्क्सवादी नेताओं के कारण ही पुलिस को गोली चलानी पड़ी. वहाँ किसानों के विरोध की वजह से जनवरी 2007 से मार्क्सवादी पार्टी के लगभग तीन हज़ार समर्थक भागने पर मजबूर हुए हैं.
माकपा सांसद लक्षमण सेठ कहते हैं, "यह नहीं चल सकता. हमे इन लोगों को घर वापस जाने लायक स्थिति बनानी होगी."
दरअसल सेठ की अगुआई वाले हल्दिया विकास प्राधिकरण ने ही इंडोनेशिया के सलीम समूह के प्रस्तावित विशेष आर्थिक क्षेत्र यानी एसईज़ेड के लिए भू-अधिग्रहण का नोटिस दिया था.
वामपंथी वर्चस्व
बंगाल में बहुत कम ही ऐसे मौक़े आए हैं जब मार्क्सवादी राजनीतिक प्रणाली पर विपक्षी दल हावी हो गए हों.
राजनीतिक मामलों के जानकार सव्यसाची बासु रॉय कहते हैं, "अगर मार्क्सवादियों को लगता है कि किसी भी इलाक़े में उनका नियंत्रण कमज़ोर पड़ रहा है तो वे पुरज़ोर विरोध शुरू करते हैं. पार्टी नेतृत्व और उनके हथियारबंद समर्थकों ने वर्ष 2001 के विधानसभा चुनावों के समय पांसकुरा, केसपुर और गारबेटा में ऐसा ही किया था."
वो कहते हैं, "नंदीग्राम में पार्टी का समर्थन अब नहीं रहा और ऐसा एक साल के भीतर ही भू-अधिग्रहण मामले के बाद हुआ है इसलिए उन्होंने पुलिस को कार्रवाई करने के लिए मजबूर किया."
सांस्कृतिक विरोध
नंदीग्राम की घटना के बाद पश्चिम बंगाल की कम्युनिस्ट सरकार को अगर पिछले तीन दशकों में पहली बार झुकना पड़ा तो इसके पीछे विपक्षी दलों के अलावा सांस्कृतिक विरोध की भी मुख्य भूमिका रही.
नंदीग्राम में इंडोनेशियाई कंपनी सलीम समूह के विशेष आर्थिक क्षेत्र (एसईज़ेड) के लिए ज़मीन अधिग्रहण का विरोध कर रहे बेक़सूर गाँववालों पर पुलिस की गोलीबारी का सांस्कृतिक संगठनों ने जमकर विरोध किया है.
वामपंथी दल इस घटना का राजनीतिक विरोध तो झेल गए लेकिन ये चौतरफ़ा सांस्कृतिक विरोध का ही नतीजा था कि मुख्यमंत्री को घटना के 15 दिनों बाद इस मामले में अपनी गलती क़बूल करनी पड़ी.
चौतरफा विरोध के दबाव में राज्य सरकार को भू-अधिग्रहण की अधिसूचना वापस लेनी पड़ी और वहाँ प्रस्तावित एसईज़ेड परियोजना को रद्द करना पड़ा. मुख्यमंत्री ने कुछ साहित्यकारों और बुद्धिजीवियों से मिल कर अपनी स्थिति साफ़ करने का भी प्रयास किया. लेकिन उसके बावज़ूद उनके समर्थन में बोलने वालों की तादाद उंगलियों पर गिनी जा सकती है. नंदीग्राम की गोलीबारी के लिए अब भी सांस्कृतिक हलकों में मुख्यमंत्री का भारी विरोध हो रहा है. इसमें वामपंथी बुद्धिजीवी सबसे आगे हैं. उनकी दलील है कि सिर्फ ग़लती मान लेने से इस ग़लती की भरपाई नहीं हो सकती.
सरकार ने इस कांड में मारे गए या घायल हुए लोगों के परिजनों को अब तक एक पैसा भी मुआवज़ा नहीं दिया है. बुद्धदेब भट्टचार्य ने भले गलती मान ली हो पर उऩकी पार्टी माकपा इसे मानने को तैयार नहीं है.माकपा के कार्यकर्ताओं और समर्थकों की घर वापसी सरकार और पार्टी की प्राथमिकता सूची में सबसे ऊपर है. इन लोगों ने नंदीग्राम की घटना के बाद इलाक़ा ख़ाली कर दिया था.बुद्धदेब भट्टाचार्य ने सालों पहले एक नाटक लिखा था- 'दुसमय' यानी बुरा समय. लेकिन नंदीग्राम गोलीबारी के बाद वे ख़ुद ही अपने लिखे उस नाटक के मुख्य पात्र बन गए हैं.
दिलचस्प बात यह है कि गृह, सूचना और संस्कृति मंत्रालय भी बुद्धदेब के ही ज़िम्मे हैं. सांस्कृतिक ख़ेमे के विरोध को ध्यान में रखते हुए मुख्यमंत्री ने राज्य सरकार के सांस्कृतिक परिसर 'नंदन' में जाना छोड़ दिया है. पहले वे नियमित तौर पर नाटक और फ़िल्में देखने शाम को वहाँ जाते थे.नंदीग्राम गोलीबारी का अगले ही दिन सांस्कृतिक स्तर पर भारी विरोध शुरू हो गया था.साहित्यकारों, संस्कृतिकर्मियों, अभिनेताओं और नाट्यकर्मियों की बड़ी ज़मात उनके खिलाफ़ हो गई है.
इन लोगों ने नंदीग्राम की तुलना जालियाँवालाबाग से करते हुए बुद्धदेब को जनरल डायर से ख़तरनाक बताया और उनके इस्तीफ़े की माँग उठाई है. राज्य के बुद्धिजीवी इस घटना के विरोध में सड़कों पर उतर आए हैं. वामपंथी कवियों और साहित्यकारों ने सरकार की विभिन्न अकादमियों से इस्तीफ़े दे दिए हैं और सरकारी पुरस्कार लौटा दिए हैं. अब इसके विरोध में कई नाटकों के मंचन का फ़ैसला किया गया है. उनसे जुटी रक़म का इस्तेमाल नंदीग्राम के प्रभावित लोगों के पुनर्वास में किया जाएगा.
वैकल्पिक पैकेज
माकपा के वयोवृद्ध नेता ज्योति बसु ने सिंगूर में किसानों की जमीन के एवज में उन्हें दिए जाने वाले वैकल्पिक मुआवजा पैकेज की सराहना की है। राज्य के उद्योग मंत्री निरूपम सेन द्वारा तैयार किया गया यह पैकेज सिंगूर के उन किसानों के लिए है जिनकी जमीन टाटा मोटर्स की लघु कार परियोजना के लिए अधिग्रहित की गई है। बसु ने पार्टी की राज्य सचिवालय में हुई बैठक के बाद संवाददाताओं से कहा देश में यह सबसे बढ़िया पैकेज है। उन्होंने कहा कि भूमि अधिग्रहण मामले की उच्च न्यायालय में 18 जून को होने जा रही सुनवाई के बाद सेन इस पैकेज का खुलासा करेंगे। यह पूछे जाने पर कि क्या तृणमूल कांग्रेस की प्रमुख ममता बनर्जी को यह पैकेज अस्वीकार्य लगता है। बसु ने कहा कि इसके लिए कुछ नहीं किया जा सकता। उन्होंने जानना चाहा क्या उन्हें पैकेज की जानकारी है। पश्चिम बंगाल की सरकार ने कल तृणमूल कांग्रेस की यह माँग खारिज कर दी थी कि सिंगूर के किसानों की जमीन उन्हें वापस कर दी जानी चाहिए। लेकिन राज्य सरकार ने कहा था कि वह एक वैकल्पिक पैकेज तैयार कर रही है।
Friday, 15 June 2007
कांशीराम और अंबेडकर
महाराजा ने उन्हें अपना राजनीतिक सचिव तो बना लिया, लेकिन महार होने के चलते कोई उनका आदेश नहीं मानता था. अंबेडकर वर्ष 1917 के आखिर में बंबई लौट आए और 31 जनवरी 1920 को 'मूकनायक' नाम का एक पाक्षिक अख़बार निकालना शुरु किया. इस दौरान उन्होंने बंबई के साइदेनहम कॉलेज ऑफ कॉमर्स एण्ड इकॉनॉमिक्स में अध्यापन भी किया. लेकिन उच्च शिक्षा की ललक उन्हें रोक नहीं पाई और कुछ पैसे इकट्ठा करने के बाद वो वापस लंदन चले गए. वहाँ से विज्ञान में डॉक्टरेट और बैरिस्टरी हासिल कर वह भारत लौटे. जुलाई 1924 में 'बहिष्कृत हितकारिणी सभा' की स्थापना की. अछूतों को सार्वजनिक तालाबों से पानी भरने का अधिकार दिलाने के लिए 1927 में मुंबई के नज़दीक कोलाबा के चौदार तालाब तक उन्होंने महाड़ पदयात्रा का नेतृत्त्व किया और वहीं 'मनुस्मृति' की प्रतियाँ भी जलाई. वर्ष 1929 में अंबेडकर ने साइमन कमीशन का समर्थन करने जैसा विवादास्पद निर्णय लिया. काँग्रेस ने इस आयोग का बहिष्कार कर संविधान का एक अलग ड्राफ्ट तैयार किया था जिसमें शोषित वर्गों के लिए प्रावधान नहीं होने के चलते अंबेडकर को उनके प्रति संदेह पैदा हो गया.
24 दिसम्बर 1932 को अंबेडकर और महात्मा गाँधी के बीच पूना पैक्ट हुआ. इस पैक्ट में अलग निर्वाचक मंडल के स्थान पर क्षेत्रीय और केंद्रीय विधानसभाओं में आरक्षित सीट जैसे विशेष प्रावधान किए गए. अंबेडकर ने लंदन में हुए तीनों गोलमेज सम्मेलनों में भाग लिया और अछूतों के कल्याण की ज़ोरदार माँग उठाई.वर्ष 1935 में वो गवर्नमेंट लॉ कॉलेज के प्रिंसिपल नियुक्त हुए और इस पद पर दो साल तक रहे.अगस्त 1936 में उन्होंने 'इन्डिपेन्डेंट लेबर पार्टी' गठित की और 1937 में हुए बंबई विधानसभा के चुनावों में इस पार्टी ने 15 सीटें जीतीं.
आजाद भारत में
वर्ष 1947 में भारत के आज़ाद होने के बाद वो बंगाल से संविधान सभा के लिए सदस्य चुने गए और जवाहरलाल नेहरु ने उन्हें अपने मंत्रिमंडल में क़ानून मंत्री बनने के लिए आमंत्रित किया. वे संविधान सभा की प्रारूप समिति के सभापति चुने गए और हिन्दू क़ानूनों को संहिताबद्ध करने के लिए अक्टूबर 1948 में उन्होंने संविधान सभा में हिन्दू संहिता विधेयक पेश किया. विधेयक पर काँग्रेस के भीतर भारी मतभेद होने के कारण पहले इसे सितंबर 1951 तक टाल दिया गया, लेकिन बाद में जब इसमें काँट-छाँट की गई तो व्यथित अंबेडकर ने क़ानून मंत्री का पद छोड़ दिया. बाद में स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में 1952 में वो लोकसभा का चुनाव हार गए लेकिन अपनी मृत्यु के समय तक वो राज्यसभा के सदस्य बने रहे.14 अक्टूबर 1956 को उन्होंने अपने कई अनुयाइयों के साथ बौद्ध धर्म अपनाया.
कृतित्व
1916 में शोध निबंध ' दी इवोल्यूशन ऑफ ब्रिटिश फिनांश इन इण्डिया' के नाम से पुस्तक के रूप में प्रकाशित.हालाँकि पहली पुस्तक 'कास्ट्स इन इण्डियाः देयर मैकेनिज्म, जेनेसिस एण्ड डेवेलपमेंट इन इण्डिया' थी.1923 में शोध पत्र ' द प्रॉब्लम ऑफ़ रुपी' पूरा किया, जिसपर लंदन यूनिवर्सिटी ने डॉक्टरेट ऑफ साइंस यानी डीलिट की उपाधि से नवाज़ा.न्यूयॉर्क में लिखे शोध पत्र पर 1937 में पुस्तक 'दि इनहेलेशन ऑफ़ कास्ट' प्रकाशित.1941 से 1945 के बीच कई विवादास्पद किताबें और पर्चे प्रकाशित. इनमें से प्रमुख थे- 'थॉट्स ऑन पाकिस्तान' (इसमें उन्होंने मुस्लिम लीग के रवैये की आलोचना की), 'व्हाट गाँधी एण्ड काँग्रेस हैव डन टू द अनटचेबल्स' (इसमें उन्होंने गाँधी और काँग्रेस के दोहरे रवैये की आलोचना की). 'हू वर द शूद्राज?' में उन्होंने शूद्रों को अछूतों से अलग बताया.
1948 में पुस्तक ' द अनटचेबल्सः ए थिसिस ऑन द ऑरिजिन्स ऑफ़ अनटचेबिलिटी' में हिन्दू धर्म की विसंगतियों की कड़ी आलोचना की.1956 में ' द बुद्धा एण्ड हिज धम्मा' को अंतिम रूप दिया, लेकिन यह उनके मरणोपरांत ही प्रकाशित हो सकी.आख़िरी पुस्तक ' द बुद्धा ऑर कार्ल मार्क्स' थी. जिसकी पाण्डुलिपी को उन्होंने अपनी मृत्यु से चार दिन पहले ही अंतिम रूप दिया था. 1990 में उन्हें मरणोपरांत भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से सम्मानित किया गया.
06 दिसंबर, 1956. (उनके अनुयायी उनकी मृत्यु को महापरिनिर्वाण के रूप में याद करते हैं.)
कांशीराम और उनकी राजनीति
काश! कांशीराम थोड़ा और जी लेते. इसमें और कुछ नहीं तो उत्तर प्रदेश में पार्टी का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन जरूर देख लेते. बीमारी वाली अवधि में भी अगर वे सक्रिय रहे होते तो उत्तर प्रदेश ही नहीं अपनी पूरी राजनीति को थोड़ा और मजबूत करते.ऐसी कामनाओं और चाहों का होना यह बताता है कि कांशीराम और उनकी राजनीति की प्रासंगिकता अभी बाकी है और उनके जाने से समाज का, खासकर दलित समाज का काफी नुकसान हो गया है.अकेले दम पर और आरक्षण के ज़रिए निकले दलित अधिकारियों-कर्मचारियों की थोड़ी सी मदद से उन्होंने जो मशाल जलाई उसने मुल्क की राजनीति में भारी बदलाव ला दिया है. लेकिन जाहिर तौर पर उनका मिशन अधूरा है और अगर इसे ढंग से आगे नहीं बढ़ाया गया तो यह बड़ा नुकसान होगा.कांशीराम ने सबसे बड़ा काम तो मुल्क में और खास तौर से हिंदीभाषी प्रदेशों में दलित समाज में प्राण फूंकने का किया है.
उपलब्धियाँ
हजारों साल से दबा यह समाज आज न सिर्फ मुख्यधारा में आया है बल्कि उत्तर प्रदेश जैसे सबसे महत्वपूर्ण राजनीतिक प्रांत के शासन की बागडोर तीन-तीन बार एक दलित महिला के हाथ में आई है.दलितों में कांशीराम और बसपा के लिए जो ललक और प्रेम दिखता है वह विलक्षण है. बसपा के नेतृत्व की अगली चुनौती इन आकांक्षाओं को राजनीतिक हथियार में बदलकर उत्तर प्रदेश जैसी स्थिति बाक़ी राज्यों में करने की है. यह काम मुश्किल है पर कांशीराम का उदाहरण आश्वस्त भी करता है कि ईमानदार कोशिश हो तो यह असंभव नहीं है.
कांशीराम और उनके आंदोलन की यह उपलब्धि कई मायनों में तात्कालिक या अस्थाई किस्म की है. उनकी असली उपलब्धि है दलित समाज के लोगों के बीच स्वाभिमान और आत्मविश्वास जगाना. बाबा साहब तो महानायक थे ही. बसपा आंदोलन ने झलकारी बाई और संभाजी महाराज जैसे अपने नए नायक खड़े किए. उनके ऐतिहासिक योगदान को स्पष्ट किया. उनके अपने आंदोलन में लीडर भी अपनी जाति या अपने पुरखों का नाम करते हैं. इस धारा को इसी सोच में कौन आगे बढ़ाएगा? कांशीराम ने अपने लक्ष्यों को पाने के लिए समझौते किए, पर लक्ष्य कभी ओझल नहीं हुए.
नया नेतृत्व
बसपा के अब के नेतृत्व ने भी अभी तक कोई बड़ी चूक नहीं की है, पर उस पर कांशीराम जैसा भरोसा नहीं होता. इस भरोसे पर खरा उतरना भी नए नेतृत्व की चुनौती होगी. कांशीराम की राजनीति की एक और बड़ी खूबी यह है कि उसमें बाहर से थोपा हु्आ कुछ भी नहीं है. इस पर अमेरिकी अश्वेत आंदोलन या बाहरी राजनीतिक दर्शनों का ज़्यादा असर नहीं था. उनका अपना जीवन भी न तो अभाव दिखाने वाला था न ब्राह्मणवादी नेतृत्व की विलासिता की कार्बन कापी वाला, दलित नेतृत्व के लिए उनके जीवन जीने का ढंग भी एक चुनौती बना रहेगा. वे बीते दो-तीन साल से बीमार थे. बसपा बनाने से लेकर अब तक की मात्र दो दशक की उनकी राजनीति और उपलब्धियाँ भी सिर्फ दलित नेताओं के लिए ही नहीं सबके लिए चुनौती रहेगी. उन लोगों के लिए और ज़्यादा जो दशकों से मई दिवस, रूसी क्रांति दिवस पर रैलियाँ निकालने का काम, गाँधी और नेहरू का नाम भुनाने या फिर राम का नाम लेकर सत्ता हथियाने के खेल में लगे रहे हैं. आज़ाद भारत के सभी नेताओं की तुलना में अगर कांशीराम 19 नहीं ठहरते तो उनकी गैर मौजूदगी जाहिर तौर पर सबके लिए नुकसानदेह है और उनका नाम और काम समाज राजनीति में नया करने वाले हर आदमी के लिए प्रेरणा का स्रोत बना रहेगा.
पंजाब में जन्मे और महाराष्ट्र में नौकरी करने वाले कांशीराम ने अपनी राजनीति का अखाड़ा उत्तर प्रदेश को बनाया. पिछले 20 वर्षों में कांशीराम ने उत्तर प्रदेश और उसके माध्यम से भारत की राजनीति में उथल-पुथल मचा दी.
कांशीराम की राजनीति शुरू हुई ब्राह्मणवाद के विरोध से लेकिन सत्ता सोपान पर पार्टी को चढ़ाने के लिए उन्होंने किसी से समझौता करने से परहेज़ नहीं किया, न ही समझौता तोड़ने में संकोच किया.उनकी राजनीति का आधार बने सरकारी सेवाओं में काम करने वाले दलित अधिकारी, वोट बैंक बढ़ाने के लिए उन्होंने अपनी पार्टी को अति पिछड़ों और मुसलमानों के गरीब तबक़े से जोड़ा.कांशीराम की इस राजनीति का पहला शिकार बनी काँग्रेस पार्टी. कांशीराम के ख़तरे को भाँपकर 1986 में दलित अफ़सरों को वीर बहादुर सिंह की सरकार ने महत्वपूर्ण पदों पर बिठाया लेकिन इन अधिकारियों ने अपनी प्रतिबद्धता नहीं बदली और तन-मन-धन से बीएसपी का ही साथ दिया.इसका परिणाम ये हुआ कि दलितों और मुसलमानों का समर्थन खोकर काँग्रेस पार्टी सत्ता से 1989 में बाहर हो गई जिसके बाद आज तक उसकी वापसी नहीं हो सकी.
तेज प्रगति
1984 में गठित बहुजन समाज पार्टी पाँच वर्ष बाद 1989 में दर्जन भर विधायकों के साथ विधानसभा में पहुँची. इसके बाद कांशीराम ने इलाहाबाद से वीपी सिंह के ख़िलाफ़ और अमेठी से राजीव गाँधी के ख़िलाफ़ चुनाव लड़ा लेकिन नाकाम रहे.
मुलायम सिंह यादव की मदद से वे इटावा से लोकसभा में पहुँचे और 1992 में उन्होंने नारा दिया--'मिले मुलायम कांशीराम, हवा हो गए जयश्री राम.' बाबरी मस्जिद टूटी, विधानसभा चुनाव हुए और सपा-बसपा गठबंधन सरकार में आई, लेकिन कांशीराम चैन से कहाँ बैठने वाले थे.अपनी शिष्या मायावती को 'उत्तर प्रदेश की महारानी' बनवाने के लिए कांशीराम ने दो ब्राह्मण नेताओं--पीवी नरसिंह राव और अटल बिहारी वाजपेयी से साँठगाँठ करके मुलायम को मुख्यमंत्री की कुर्सी से उतार फेंका. मायावती मुख्यमंत्री बनीं.फिर भारतीय जनता पार्टी के साथ नई पारी खेलते-खेलते बहुजन समाज से सर्वसमाज की बातें शुरू हुईं लेकिन मायावती ने बीजेपी को भी गच्चा दे दिया, अगले चुनाव में कांग्रेस से तालमेल कर लिया.लेकिन इसका फ़ायदा बहुजन समाज पार्टी नहीं बल्कि काँग्रेस को हुआ. कांशीराम ने तय किया कि अगला चुनाव पार्टी अपने दम पर लड़ेगी.
अपनी कूटनीति से 2002 में उन्होंने मुलायम सिंह यादव को सत्ता में आने से रोकने के लिए एक बार फिर भारतीय जनता पार्टी से हाथ मिला लिया.अब तक मायावती का अपना क़द अपने गुरू कांशीराम से भी ऊँचा हो चुका था. कांशीराम की सेहत ख़राब रहने लगी थी. मायावती को लगा कि भाजपा के साथ मिलकर सरकार चलाना दीर्घकालिक राजनीतिक हित में नहीं है इसलिए वे सरकार से बाहर हो गईं.
मायावती ने रणनीति बदली और सवर्ण बहुल पार्टियों की जगह सीधे सवर्ण जातियों के साथ गठबंधन बनाना शुरू किया. कांशीराम के साथियों की नाराज़गी से बचने के लिए उनके जीते जी लखनऊ में लाल बहादुर शास्त्री मार्ग पर अपनी और कांशीराम की प्रतिमाएँ स्थापित करके स्मारक बनवाया.ब्राह्मणवाद के विरोध पर बनी कांशीराम की पार्टी में एक ब्राह्मण सतीश मिश्र अब मायावती के दाहिने हाथ कहे जाते हैं. इसके बाद कांशीराम के अनुयायियों को आश्वस्त करने के लिए उन्होंने घोषणा की कि उनका उत्तराधिकारी दलित ही होगा.कांशीराम को मसीहा मानने वाले दलित समुदाय में कसमसाहट है. मायावती का सर्वण प्रेम वे पचा नहीं पा रहे हैं. कांशीराम के बाद दलित समुदाय मायावती से कितना जुड़ा रहता है इसका फ़ैसला अगले विधानसभा चुनाव में हो जाएगा.
वर्ष 1995 में जब मायावती पहली बार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनीं थी तो तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव ने इसे 'लोकतंत्र का चमत्कार' कहा था. 'लोकतंत्र के उस चमत्कार' के 12 साल बाद एक बार फिर सत्ता मायवाती के पास आई हैं और चौथी बार ऐसा होगा जब मायावती मुख्यमंत्री पद की शपथ लेंगी. दलित राजनीति के नेतृत्व करने वाली मायावती ने इस बार न सिर्फ़ दलितों और मुसलमानों की सहानुभूति हासिल की बल्कि सवर्णों को भी साथ लिया और उनकी ये रणनीति ख़ूब चली. एक दशक से अधिक समय बाद ऐसा हुआ है कि टुकड़ों में बँटे उत्तर प्रदेश में किसी एक पार्टी ने अपने दम पर बहुमत हासिल किया है. कांशीराम के साथ 1980 के दशक में बहुजन समाज की राजनीति करने वाली मायावती का यहाँ तक का सफ़र न सिर्फ़ उतार-चढ़ाव से भरा रहा है बल्कि भारतीय राजनीति में उनके अक्खड़पन और बिंदास छवि का भी गवाह रहा है.
कभी स्कूल में शिक्षिका रहीं मायावती ने सिविल सर्विसेज़ में जाने की सोची थी लेकिन उनका झुकाव हुआ कांशीराम की ओर जिन्होंने 14 अप्रैल 1984 को बहुजन समाज पार्टी का गठन किया था.पार्टी कार्यकर्ताओं में 'बहनजी' के नाम से मशहूर मायावती का राजनीतिक करियर झटकों के साथ शुरू हुआ. 1985 में वे पहली बार लोकसभा उपचुनाव में खड़ी हुई लेकिन हार गईं. वर्ष 1987 में उन्होंने हरिद्वार से अपनी क़िस्मत आज़माई लेकिन नतीजा उनके पक्ष में नहीं रहा. लेकिन उनकी पराजय का दौर ज़्यादा समय नहीं टिका. 1989 के चुनाव में उन्होंने बिजनौर से जीत हासिल की और फिर उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा.
पहली बार 1995 में वे उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनीं. पहले समाजवादी पार्टी के साथ सरकार बनाने वाली मायवाती रुठीं तो फिर भारतीय जनता पार्टी का दामन थामा और 3 जून 1995 को पहली बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ली. यह पहला मौक़ा था जब कोई दलित महिला उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनी थी.प्रभु दयाल और रामरती की नौ संतानों में से दूसरी मायावती का जन्म 15 जनवरी 1956 को उत्तर प्रदेश के ग़ाज़ियाबाद ज़िले के बादलपुर गाँव में हुआ था.
दिल्ली विश्वविद्यालय से क़ानून और मेरठ विश्वविद्यालय से बीएड की शिक्षा प्राप्त करने वाली मायावती को राजनीति की दीक्षा बहुजन समाज पार्टी नेता कांशीराम से मिली.दोनों पहली बार 1984 में मिले थे. तब मायावती दिल्ली प्रशासन के एक प्राथमिक विद्यालय में शिक्षिका थीं और दिल्ली के इंद्रपुरी इलाक़े की एक झुग्गी में रहती थीं.कांशीराम ने मायावती के तेवरों को धार दी और इस तरह वे दलित अधिकारों की एक मुखर प्रवक्ता के रूप में सामने आईं. थोड़े ही दिनों में वे बहुजन समाज पार्टी में दूसरी सबसे महत्वपूर्ण शख़्सियत बन गईं.
वर्ष 1995 में उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री की कमान संभालने के बाद मायावती पर सिद्धांतविहीन राजनीति का आरोप लगा. इसलिए कि उन्होंने भारतीय जनता पार्टी के साथ समझौता किया.लेकिन मायावती ने स्पष्ट किया कि वे दलितों को सत्ता में भागीदारी दिलाने के लिए कुछ भी करेंगी. भारतीय जनता पार्टी से उन्होंने एक नहीं दो-दो बार समझौता किया. समझौता हुआ और टूटा भी. मायावती का मोह बना और मोह टूटा भी.लेकिन उनकी राजनीति की आँच कम नहीं हुई. एक बार उत्तर प्रदेश की सत्ता में आने के बाद मायावती का राज्य की राजनीति और केंद्र की राजनीति में दख़ल कम नहीं हुआ.
राजनीति के उस दौर में मायावती की छवि सवर्णों की धुर विरोधी की रही. उस दौरान उनकी पार्टी का प्रमुख नारा था- तिलक, तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार.कांशीराम के सक्रिय राजनीति से अलग होने के बाद रणनीति बनाने के मामले में भी मायावती अकेले पड़ गई. गाहे-बगाहे जीते हुए पार्टी विधायकों के टूट कर विरोधी ख़ेमे में जाने से भी मायावती को काफ़ी नुक़सान हुआ.तीन बार मुख्यमंत्री बनीं मायावती का कार्यकाल डेढ़ साल का भी नहीं रहा था. ऊपर से भ्रष्टाचार और पार्टी चंदा के नाम पर अपने विधायकों से पैसा उगाही जैसे आरोपों से मायावती का ग्राफ़ तेज़ी से नीचे गिरा.
वर्ष 2002 के विधानसभा चुनाव में मायावती ने भाँप लिया था कि सिर्फ़ दलितों की राजनीति के बल पर वे सत्ता का स्वाद ज़्यादा दिनों तक नहीं चख सकती.उस साल उन्होंने सवर्णों को रिझाने की कोशिश की और नारा दिया- हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा-विष्णु-महेश है. बीजेपी के साथ तालमेल किया और सरकार बनाने में सफल रहीं.लेकिन तीन मई 2002 से 29 अगस्त 2003 तक सत्ता में रहने के बाद उत्तर प्रदेश की राजनीति में फिर भूचाल आया. मायावती की सरकार गई, राष्ट्रपति शासन लगा, कल्याण सिंह मुख्यमंत्री बने लेकिन फिर विधायकों की संख्या में बाज़ी मारी मुलायम सिंह ने और सरकार बनीं.
पद छोड़ने के बाद मायावती के ख़िलाफ़ आरोपों का पिटारा खुला. भ्रष्टाचार के मामले में उनके घर छापे पड़े, संपत्ति की जाँच शुरू हुई और ताज कोरीडोर मामले में सुप्रीम कोर्ट ने जाँच का आदेश दिया.पार्टी के विधायक टूट कर समाजवादी पार्टी के साथ चले गए. मायावती का ग्राफ़ फिर नीचे गिरा. इस साल विधानसभा चुनाव में मायावती ने सवर्णों को साथ लेकर चलने की रणनीति को और विस्तार दिया.वे खुल कर सवर्णों के साथ आईं, रैली की और बड़ी संख्या में उन्हें टिकट भी दिया. नतीजा सामने हैं- मायावती विजेता बन कर सामने आई हैं और इस बार लगता है कि अपने दम पर वो सरकार बनाएँगी और शायद पाँच साल का कार्यकाल भी पूरा करेंगी.
वर्ष 2002 के विधानसभा चुनाव में मायावती ने भाँप लिया था कि सिर्फ़ दलितों की राजनीति के बल पर वे सत्ता का स्वाद ज़्यादा दिनों तक नहीं चख सकती.उस साल उन्होंने सवर्णों को रिझाने की कोशिश की और नारा दिया- हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा-विष्णु-महेश है. बीजेपी के साथ तालमेल किया और सरकार बनाने में सफल रहीं. लेकिन तीन मई 2002 से 29 अगस्त 2003 तक सत्ता में रहने के बाद उत्तर प्रदेश की राजनीति में फिर भूचाल आया. मायावती की सरकार गई, राष्ट्रपति शासन लगा, कल्याण सिंह मुख्यमंत्री बने लेकिन फिर विधायकों की संख्या में बाज़ी मारी मुलायम सिंह ने और सरकार बनीं.
पद छोड़ने के बाद मायावती के ख़िलाफ़ आरोपों का पिटारा खुला. भ्रष्टाचार के मामले में उनके घर छापे पड़े, संपत्ति की जाँच शुरू हुई और ताज कोरीडोर मामले में सुप्रीम कोर्ट ने जाँच का आदेश दिया.पार्टी के विधायक टूट कर समाजवादी पार्टी के साथ चले गए. मायावती का ग्राफ़ फिर नीचे गिरा. इस साल विधानसभा चुनाव में मायावती ने सवर्णों को साथ लेकर चलने की रणनीति को और विस्तार दिया.वे खुल कर सवर्णों के साथ आईं, रैली की और बड़ी संख्या में उन्हें टिकट भी दिया. नतीजा सामने हैं- मायावती विजेता बन कर सामने आई हैं और इस बार लगता है कि अपने दम पर वो सरकार बनाएँगी और शायद पाँच साल का कार्यकाल भी पूरा करेंगी.
वर्ष 2002 के विधानसभा चुनाव में मायावती ने भाँप लिया था कि सिर्फ़ दलितों की राजनीति के बल पर वे सत्ता का स्वाद ज़्यादा दिनों तक नहीं चख सकती. उस साल उन्होंने सवर्णों को रिझाने की कोशिश की और नारा दिया- हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा-विष्णु-महेश है. बीजेपी के साथ तालमेल किया और सरकार बनाने में सफल रहीं. लेकिन तीन मई 2002 से 29 अगस्त 2003 तक सत्ता में रहने के बाद उत्तर प्रदेश की राजनीति में फिर भूचाल आया. मायावती की सरकार गई, राष्ट्रपति शासन लगा, कल्याण सिंह मुख्यमंत्री बने लेकिन फिर विधायकों की संख्या में बाज़ी मारी मुलायम सिंह ने और सरकार बनीं.
पद छोड़ने के बाद मायावती के ख़िलाफ़ आरोपों का पिटारा खुला. भ्रष्टाचार के मामले में उनके घर छापे पड़े, संपत्ति की जाँच शुरू हुई और ताज कोरीडोर मामले में सुप्रीम कोर्ट ने जाँच का आदेश दिया.पार्टी के विधायक टूट कर समाजवादी पार्टी के साथ चले गए. मायावती का ग्राफ़ फिर नीचे गिरा. इस साल विधानसभा चुनाव में मायावती ने सवर्णों को साथ लेकर चलने की रणनीति को और विस्तार दिया.वे खुल कर सवर्णों के साथ आईं, रैली की और बड़ी संख्या में उन्हें टिकट भी दिया. नतीजा सामने हैं- मायावती विजेता बन कर सामने आई हैं और इस बार लगता है कि अपने दम पर वो सरकार बनाएँगी और शायद पाँच साल का कार्यकाल भी पूरा करेंगी.
वर्ष 2002 के विधानसभा चुनाव में मायावती ने भाँप लिया था कि सिर्फ़ दलितों की राजनीति के बल पर वे सत्ता का स्वाद ज़्यादा दिनों तक नहीं चख सकती.उस साल उन्होंने सवर्णों को रिझाने की कोशिश की और नारा दिया- हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा-विष्णु-महेश है. बीजेपी के साथ तालमेल किया और सरकार बनाने में सफल रहीं.लेकिन तीन मई 2002 से 29 अगस्त 2003 तक सत्ता में रहने के बाद उत्तर प्रदेश की राजनीति में फिर भूचाल आया. मायावती की सरकार गई, राष्ट्रपति शासन लगा, कल्याण सिंह मुख्यमंत्री बने लेकिन फिर विधायकों की संख्या में बाज़ी मारी मुलायम सिंह ने और सरकार बनीं.
पद छोड़ने के बाद मायावती के ख़िलाफ़ आरोपों का पिटारा खुला. भ्रष्टाचार के मामले में उनके घर छापे पड़े, संपत्ति की जाँच शुरू हुई और ताज कोरीडोर मामले में सुप्रीम कोर्ट ने जाँच का आदेश दिया.पार्टी के विधायक टूट कर समाजवादी पार्टी के साथ चले गए. मायावती का ग्राफ़ फिर नीचे गिरा. इस साल विधानसभा चुनाव में मायावती ने सवर्णों को साथ लेकर चलने की रणनीति को और विस्तार दिया.वे खुल कर सवर्णों के साथ आईं, रैली की और बड़ी संख्या में उन्हें टिकट भी दिया. नतीजा सामने हैं- मायावती विजेता बन कर सामने आई हैं. पाँच साल का कार्यकाल भी पूरा करेंगी.
प्रतिभा देवी सिंह पाटिल
Thursday, 14 June 2007
आज के दलित
आज के दलित
लाख बँटा होने पर भी वह आज खैरलांजी के दलित-दमन के ख़िलाफ़ एकजुट होकर आंदोलित है, तो कानपुर के अपमान के विरुद्ध भी जूझ रहा है. आज दलित-चेतना का फैलाव अंबेडकर से बुद्ध तक हो चुका है. बुद्ध के ‘अप्प दीपो भवः’ यानी अपना नेतृत्व ख़ुद करो, उनका उत्प्रेरक बन गया है. यह एक अलग बात है कि उनका प्रतिरोध अभी इतना सक्षम नहीं कि व्यवस्था को बदल डाले. दलित समाज को डॉ अंबेडकर के बाद अगर किसी ने सर्वाधिक प्रभावित किया तो वो कांशीराम थे. उनके ‘सत्ता में भागीदारी’ के नारे ने ऐसी उड़ान भरी कि वह शहरों से गाँव तक फैल गया और दलितों का एजेंडा हर राजनीतिक दल में आ गया. इसी नारे के सहारे ख़ासकर हिंदी पट्टी में दलित न केवल सत्ता के गलियारे तक ही पहुँचे बल्कि वे सत्ता के खेल में मोहरे की बजाए खिलाड़ी बन गए हैं.
भटकाव
हालांकि हर आंदोलन की तरह दलित आंदोलन में भी भटकाव आया. उनमें सवर्णों के प्रति नफ़रत भी पैदा हुई जिससे ब्राह्मणवाद के ख़िलाफ़ एक दलितवाद जन्मा, जो मात्र जातियों का रिप्लेसमेंट चाहता है, उसे तोड़ना नहीं चाहता. वह सामाजिक परिवर्तन, समानता, भाईचारा और आज़ादी तथा जाति तोड़ो आंदोलन से विमुख होकर अवसरवादी समझौते करने लगा और कई टुकड़ों में बँट गया. इसका एकमात्र कारण था संगठन पर व्यक्ति विशेष का हावी होना. आज का दलित नेतृत्व भी बाकी स्वर्ण समाज की तरह ही यह तय नहीं कर पा रहा है कि वह पूँजीवाद के साथ रहे या समाजवाद के.
दालित-ब्राह्मण
दरअसल, दलितों के आदर्श आज भी ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य है. आरक्षण के सहारे वे प्रशासन के गलियारे तक पहुँचे, बड़े अधिकारी, नेता, मुख्यमंत्री भी बने. फिर भी जाति तोड़ने की बजाय जाति उन्नयन की मुहिम चल पड़ी. दलितों में दलित-ब्राह्मण पैदा हुए, जिन्होंने जाति और धर्म को मज़बूत किया. दलित समाज धर्म से भी मुक्त नहीं हो पाया. चंद अपवाद छोड़कर आज भी दलितों का बड़ा तबका वैज्ञानिक सोच और तार्किकता से कोसों दूर है. इसके बावजूद दलित स्वर एक सफल प्रतिरोधी स्वर है जो सत्ता और व्यवस्था में हस्तक्षेप करने की ताक़त रखता है. उसकी चिंता है एक अलग परंपरा-संस्कृति का निर्माण, जिसमें समानता, श्रम की महत्ता और लोकतांत्रिक मूल्यों का समायोजन हो. उसकी सबसे बड़ी उपलब्धि है, "अब तो वे हार नहीं विजय का अर्थ जान गए हैं. वे मरना नहीं मानरा भी सीख गए हैं. पहले वे मरने के लिए जीते थे. अब वे ज़िंदा रहने के लिए-मरने लगे हैं."
दलित मुक्ति का आंदोलन
बाबा साहेब अंबेडकर का आंदोलन दलित मुक्ति का आंदोलन था और दलित मुक्ति से मेरा मतलब है कि वर्ण व्यवस्था के अभिशाप से दलित समाज को कैसे छुटकारा मिले. दलितों की सदियों से जो समस्या चली आ रही है, चाहे वो छुआ-छूत की हो, अशिक्षा की हो, ग़रीबी की हो, सामाजिक बहिष्कार की हो, इन सबके मूल में वैदिक धर्म था. अंबेडकर जी ने इसी वैदिक व्यवस्था पर अपने आक्रमण से आंदोलन की शुरुआत की थी.साथ ही उन्होंने दलित समाज को जाग्रत करने की नीव डाली. उनके पहले ऐसा काम गौतम बुद्ध को छोड़कर और किसी ने नहीं किया था.उन्होंने मनु-स्मृति को जलाकर अपने आंदोलन की शुरुआत की थी. महाड़ में जाकर पानी के लिए आंदोलन किया. मंदिर प्रवेश की समस्या को उठाया. उन्होंने दलितों के लिए गणेश-पूजा की माँग भी उठाया. उन्होंने दलितों को जनेउ पहनाने का भी काम किया. हालांकि वो ख़ुद धर्म में विश्वास नहीं करते थे पर दलितों की मानवाधिकार की लड़ाई में उन्होंने इन बुनियादी सवालों से काम करना शुरु किया था.
अंबेडकर जैसा कोई विकल्प नहीं
अंबेडकर का विकल्प कैसे पैदा होगा जब उनके विचार को ही नहीं अपनाया जाएगा.उस सोच से आज के दलित नेता पूरी तरह से भटक गए हैं. अंबेडकर को कोई नहीं अपनाता है. कोई सत्ता का नारा देता है तो कोई सत्ता में भागीदारी का नारा देता है और इन सबका उद्देश्य केवल राजनीतिक लाभ और उसके ज़रिए आर्थिक लाभ ही है.आज के नेतृत्व में सोच का ही अभाव है और इसीलिए जो काम बिना चुनावी राजनीति में गए अंबेडकर ने कर दिखाया उसे आज के दलित नेता बहुमत पाने या सरकार बनाने के बाद भी नहीं कर पाते.
अंबेडकर जी के अनुभवों से एक बात तो स्पष्ट तौर पर देखने को मिलती है कि जैसे ही दलित संगठित होना शुरू करते हैं, हिंदू धर्म में तुरंत प्रतिक्रिया होती है और धर्म को बचाने का जिम्मा लेने वाले तुरंत लचीलापन दिखाना शुरू कर देते हैं पर इस बात को दलित समाज का नेतृत्व नहीं अपना रहा है.खैरलांजी की घटना वैदिक काल में दलितों पर हुए अत्याचारों की पुनरावत्ति ही है जिससे यह साफ है कि वैदिक परंपरा पर हमला किए बिना दलित मुक्ति की बात करना बेमानी है.
जातीय सत्ता का दौर
मंडल आयोग से पहले तक राजनीतिक पार्टियाँ सत्ता में आती थीं. मंडल आयोग की रिपोर्ट के सामने आने के बाद से अब जातियाँ सत्ता में आती है.जातीय सत्ता का यह जो दौर है इसे दलित मुक्ति के तौर पर नहीं देखना चाहिए क्योंकि इसमें तो लोग जाति पर कब्जा करके उसे अपने स्वार्थों के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं. सामाजिक व्यवस्था को बदलने का अभियान, जो कि दलित राजनीति का मुख्य मुद्दा हुआ करता था, वो मुद्दा मुद्दा ही रह गया है. जातीय राजनीति से सत्ता में आने का लाभ कुछ लोगों को ज़रूर होता है. उस जाति के भी कुछ गिने-चुने लोगों को लाभ हो जाता है पर जातीय सत्ता ने न तो दलितों का कल्याण हो सकता है और न ही जाति व्यवस्था का अंत हो सकता है. आज का दलित नेता हिंदुत्व पर कोई हमला नहीं कर रहा बल्कि हिंदुत्ववादी शक्तियों के साथ समझौते का काम कर रहा है. मायावती तो हर जगह जा-जाकर बता रही हैं कि ब्राह्मण ही बड़े शोषित और पीड़ित हैं. अब तो इसी समीकरण के साथ काम हो रहा है कि कुछ ब्राह्मणों को ठीक कर लो, कुछ क्षत्रियों को मिला लो, कुछ बनियों को साथ ले लो और सत्ता में बहुमत हासिल कर लो. सत्ता की यह होड़ न तो सामाजिक मुक्ति की होड़ है और न ही सामाजिक परिवर्तन की.
पेरियार और अंबेडकर
दक्षिण में जो आंदोलन चला वो पेरियार के ब्राह्मण विरोध की उपज थी. बहुत ही सशक्त आंदोलन था पर दुर्भाग्य की बात यह है कि वो ब्राह्मण विरोधी आंदोलन ब्राह्मणवाद का विरोधी नहीं बन पाया. ब्राह्मणों की सत्ता तो ज़रूर ख़त्म हुई और पिछड़ी जातियों के नेता सामने आए पर लेकिन हिंदुत्ववादी दायरे में रहते हुए उन्हीं कर्मकांडों को वो भी मान रहे हैं जिन्हें कि ब्राह्मण मानते थे.एक दूसरे ढंग का ब्राह्मणवाद वहाँ आज भी क़ायम है.उत्तर भारत में कोई ब्राह्मण विरोधी आंदोलन नहीं चला. जो भी चला वो अंबेडकर का ही आंदोलन था. अंबेडकर के आंदोलन का प्रभाव उत्तर में ज़्यादा रहा भी पर यहाँ दलित उस तरह से सत्ता पर कब्ज़ा नहीं कर पाए जिस तरह से पिछड़े वर्ग के लोगों ने दक्षिण में किया.
दलित राजनीति का जहाँ तक प्रश्न है, दक्षिण भारत में पिछड़ों की राजनीति दलित राजनीति को निगल गई है. वहाँ तो दलित राजनीति के नाम पर कुछ नहीं है. जो भी है वो उत्तर भारत में हैं पर उसमें समझ की भी कमी है और बिखराव भी है. सही मायने में देखें तो यह अंबेडकर का दलित आंदोलन भी नहीं है और अंबेडकर की बताई हुई दलित राजनीति भी नहीं है.
Tuesday, 12 June 2007
मधुमेह : कुछ देसी नुस्खे और योग
नींबू से प्यास बुझाइए
मधुमेह के मरीज को प्यास अधिक लगती है। अतः बार-बार प्यास लगने की अवस्था में नीबू निचोड़कर पीने से प्यास की अधिकता शांत होती है।
खीरा खाकर भूख मिटाइए
मरीजों को भूख से थोड़ा कम तथा हल्का भोजन लेने की सलाह दी जाती है। ऐसे में बार-बार भूख महसूस होती है। इस स्थिति में खीरा खाकर भूख मिटाना चाहिए।
गाजर-पालक को औषधि बनाइए
इन रोगियों को गाजर-पालक का रस मिलाकर पीना चाहिए। इससे आँखों की कमजोरी दूर होती है। रामबाण औषधि है शलजम
मधुमेह के रोगी को तरोई, लौकी, परवल, पालक, पपीता आदि का प्रयोग ज्यादा करना चाहिए। शलजम के प्रयोग से भी रक्त में स्थित शर्करा की मात्रा कम होने लगती है। अतः शलजम की सब्जी, पराठे, सलाद आदि चीजें स्वाद बदल-बदलकर ले सकते हैं।
जामुन खूब खाइए
मधुमेह के उपचार में जामुन एक पारंपरिक औषधि है। जामुन को मधुमेह के रोगी का ही फल कहा जाए तो अतिश्योक्ति नहीं होगी, क्योंकि इसकी गुठली, छाल, रस और गूदा सभी मधुमेह में बेहद फायदेमंद हैं। मौसम के अनुरूप जामुन का सेवन औषधि के रूप में खूब करना चाहिए। जामुन की गुठली संभालकर एकत्रित कर लें। इसके बीजों जाम्बोलिन नामक तत्व पाया जाता है, जो स्टार्च को शर्करा में बदलने से रोकता है। गुठली का बारीक चूर्ण बनाकर रख लेना चाहिए। दिन में दो-तीन बार, तीन ग्राम की मात्रा में पानी के साथ सेवन करने से मूत्र में शुगर की मात्रा कम होती है।
करेले का इस्तेमाल करें
प्राचीन काल से करेले को मधुमेह की औषधि के रूप में इस्तेमाल किया जाता रहा है। इसका कड़वा रस शुगर की मात्रा कम करता है। मधुमेह के रोगी को इसका रस रोज पीना चाहिए। इससे आश्चर्यजनक लाभ मिलता है। अभी-अभी नए शोधों के अनुसार उबले करेले का पानी, मधुमेह को शीघ्र स्थाई रूप से समाप्त करने की क्षमता रखता है।
मैथी का प्रयोग कीजिए
मधुमेह के उपचार के लिए मैथीदाने के प्रयोग का भी बहुत चर्चा है। दवा कंपनियाँ मैथी के पावडर को बाजार तक ले आई हैं। इससे पुराना मधुमेह भी ठीक हो जाता है। मैथीदानों का चूर्ण बनाकर रख लीजिए। नित्य प्रातः खाली पेट दो टी-स्पून चूर्ण पानी के साथ निगल लीजिए। कुछ दिनों में आप इसकी अद्भुत क्षमता देखकर चकित रह जाएँगे।
चमत्कार दिखाते हैं गेहूँ के जवारे
गेहूँ के पौधों में रोगनाशक गुण विद्यमान हैं। गेहूँ के छोटे-छोटे पौधों का रस असाध्य बीमारियों को भी जड़ से मिटा डालता है। इसका रस मनुष्य के रक्त से चालीस फीसदी मेल खाता है। इसे ग्रीन ब्लड के नाम से पुकारा जाता है। जवारे का ताजा रस निकालकर आधा कप रोगी को तत्काल पिला दीजिए। रोज सुबह-शाम इसका सेवन आधा कप की मात्रा में करें।
अन्य उपचार
नियमित रूप से दो चम्मच नीम का रस, केले के पत्ते का रस चार चम्मच सुबह-शाम लेना चाहिए। आँवले का रस चार चम्मच, गुडमार की पत्ती का काढ़ा सुबह-शाम लेना भी मधुमेह नियंत्रण के लिए रामबाण है।
मोटा खाएं मस्त रहें
मोटे अनाज न सिर्फ स्वास्थ्य के लिए बेहतर हैं बल्कि इनके इस्तेमाल से दिल की बीमारी कैल्शियम की कमी और कई तरह की बीमारियां आप के पास भी नहीं फटक पातीं। देहाती भोजन समझ कर जिन मोटे अनाजों को रसोई से कभी का बाहर किया जा चुका है, अब वैज्ञानिक शोध से बार-बार उनकी पौष्टिकता सिद्घ हो रही है। भारतीय खाद्य एवं चारा विभाग की फसल विज्ञानी डा. उमा रघुनाथन के मुताबिक धान और गेहूं की अपेक्षा छोटे खाद्यान्न जैसे मड़ुआ, कोदो, सावां तथा कुटकी आदि की पौष्टिकता अधिक है। इस संबंध में डा. उमा का शोधपत्र आईसीएआर की अनुसंधान पत्रिका में प्रकाशित हुआ है। अनुसंधान ने दिखाया है कि परंपरागत तौर से रसोई घर से बाहर की कर दिए गए मोटे अनाज दिल की बीमारी, मधुमेह तथा डियोडिनम अल्सर से लड़ने में सहायक है। यही नहीं, सामान्य गेंहूं में जहां साल 2 साल में घुन लग जाता है वहीं मड़ुआ का दाना 2 दशक तक ज्यों का त्यों बना रहता है।
शुगर फ्री से घुल न जाए कडुवाहट
चॉकलेट, मिठाई, आईसक्रीम व सॉफ्ट ड्रिंक जैसी चीजों पर 'शुगर फ्री' लिखा देखकर गुमराह न हों, क्योंकि इनका लगातार इस्तेमाल न सिर्फ मधुमेह के स्तर व मोटापे की समस्या को बढ़ा सकता है, बल्कि सिरदर्द, पेट दर्द, अनिद्रा व चिड़चिड़ापन जैसी समस्याएं भी हो सकती हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि शुगर फ्री के नाम पर धड़ल्ले से परोसी जा रही इन चीजों में सिर्फ चीनी के इस्तेमाल से परहेज किया जाता है, दूध, खोया, घी जैसे फैट व कैलोरी के अन्य कंटेंट वही होते हैं, जो आम उत्पादों में इस्तेमाल किए जाते हैं। ऐसे में 'शुगर फ्री है, तो नुकसान नहीं करेगा' इस भ्रम में मधुमेह ग्रस्त लोग इन चीजों का मुक्त रूप से इस्तेमाल करना शुरू कर देते हैं, जो कि काफी घातक साबित होता है। उल्लेखनीय है कि चॉकलेट, आईसक्रीम, मिठाई, कोल्ड ड्रिंक जैसी जिन चीजों से मधुमेह रोगियों को परहेज करने के लिए कहा जाता है, कंपनियां उनके शुगर फ्री उत्पाद बाजार में लेकर आ जाते हैं, जिनका दावा होता है कि इनके इस्तेमाल से मधुमेह रोगियों को कोई समस्या नहीं होगी। आजकल शादी-विवाह व जन्मदिन आदि की पार्टियों में भी शुगर फ्री उत्पादों को परोसना फैशन ट्रेंड बन गया है और मधुमेह पीड़ित लोग भी बेफिक्र होकर इनका इस्तेमाल करते हैं। दिल्ली डायबिटिक रिसर्च सेंटर की ओर से किए गए अध्ययन में पाया गया कि शुगर फ्री उत्पादों का इस्तेमाल करने वाले लोगों के मुंह का स्वाद खराब रहने, माइग्रेन, पेट संबंधी दिक्कतें, चिड़चिड़ापन व इनसोमनिया जैसी समस्याएं आम होती हैं।
कपाल भाति से दूर होते हैं संपूर्ण रोग
यदि प्रत्येक व्यक्ति कपाल भाति प्राणायाम करता रहे तो वह संपूर्ण रोगों से मुक्ति पा सकता है। कपाल भाति प्राणायाम के निरंतर अभ्यास करने से मस्तिष्क व मुख मंडल पर तेज, आभा व सौंदर्य बढ़ता है साथ ही हृदय, फेफड़ों एवं मस्तिष्क के सभी रोग दूर होते है। मोटापा, मधुमेह, गैस, कब्ज, अम्लियत आदि के विकार दूर होते है यदि मनुष्य कपाल भाति प्राणायाम करता रहे तो शरीर निरोग रहता है। भ्रामरी प्राणायाम अनेक रोगों को दूर करता है। यह प्राणायाम आंख, कान, बालों के लिए काफी लाभदायक है इसके अलावा इससे मिरगी के चक्कर आना, हाथ, पैरों के सुनापन आदि बीमारियों में यह योग महत्वपूर्ण है। यह प्राणायाम बुद्धि वर्धक भी है। रोजाना इसे 3-4 मिनट तक करने से बुद्धि का विकास होगा व स्मरण शक्ति भी बढ़ेगी।
प्राणायाम और आसन
लखनऊ: योग गुरु स्वामी रामदेव यहां अम्बेडकर मैदान जेल रोड में हुए योग शिविर में साधकों को प्राणायाम और आसन कराने के साथ ही इनकी खासियत भी बतायी। जीवन के रूपांतरण की सप्त प्रणायाम की क्रियाओं के सम्पूर्ण आरोग्य देने का जिक्र करते हुए स्वामी रामदेव ने भस्त्रिका प्राणायाम के बारे में बताया कि लम्बा गहरा श्वास फेफड़ों में ढाई सेकेंड में भरो और ढाई सेकेंड में ही छोड़ो। सामान्य तरह से अधिकतम पांच मिनट और कैंसर या किसी अन्य समस्या से ग्रस्त व्यक्ति को इसे 10 मिनट तक करना चाहिए। यानी सामान्यत: 50 से 60 बार और जटिलता में सौ बार यह प्रक्रिया दोहरानी है। उन्होंने बताया कि कपाल भांति एक सेकेंड में एक बार करो। औसतन इससे एक झटके में एक ग्राम वजन कम होता है। कैंसर ल्यूकोडर्मा में कपालभांति 15 की जगह 30 मिनट तक बढ़ाया जा सकता है। उन्होंने कहा कि भस्त्रिका अगर अर्जन है कपालभांति विसर्जन। यह क्रिया 15 मिनट में नौ सौ होनी चाहिए। असाध्य रोगों में 18 सौ से दो हजार बार दोहराई जानी चाहिए। गहरा श्वास लेकर बाहर छोड़कर वाह्य प्राणायाम की क्रिया को तीन से पांच बार करने की सलाह देते हुए उन्होंने अनुलोम-विलोम प्राणायाम के बारे में बताया कि इसे एक चक्र में अधिकतम पांच मिनट करें और सामान्य रूप में कुल समय 15 मिनट और असाध्य रोगों की स्थिति में 30 मिनट दें। होंठ बंदकर ओंकार का गुंजन करने वाले भ्रामरी के साथ ही उन्होंने उद्गीत और प्रणाम प्राणायाम का जिक्र किया। साथ ही सहायक प्राणायाम उज्जायी के बारे में बताया कि यह गले और थायरायड की समस्याओं में लाभप्रद है। उन्होंने कहा कि सबसे बड़ी शक्ति संकल्प की, विचार की और विश्वास की है। प्राणायाम यह सोचकर करो कि मैं बीमार नहीं हूं। उन्होंने कहा कि अतिपोषण और कुपोषण दोनों बीमारी का कारण हैं। अब तक अन्नमय कोष को खूब पोषित किया है, अब कमजोर पड़ते मनोमय, ज्ञानमय और आनन्दमय कोष को प्राणायाम से पोषित करो। प्रज्ञा का विस्तार होगा। प्राणायाम, सूक्ष्म व सम्पूर्ण व्यायाम के साथ उंन्होंने योग आसन के विषय में कहा कि जितनी भी संसार में आकृतियां हैं, पशु पक्षी हैं, उतने ही आसन हैं। लिहाजा सब आसन हमें नहीं करने, हमें सिर्फ वही योग करना है जो हमें निरोग बनाता हो। उन्होंने भुजंग, मर्कट, वज्र और सिंह आसन भी कराये।
कम खाएँ ज्यादा जिएँ
यदि आप कम खाते हैं, तो आप ज्यादा समय तक जिंदा रहेंगे। एक नए अध्ययन में ये बात सामने आई है, लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि बहुत कम खाना शुरू कर दिया जाए, जो जीवन ही समाप्त कर दे। 1930 में यह पाया गया कि प्रयोगशाला में रहने वाले जीव कम कैलोरी वाले पदार्थ खाते हैं और लंबे समय तक जीवित रहते हैं। इन लोगों को कैंसर, मधुमेह और हृदयाघात जैसी शिकायतें कम ही होती है। परंतु फिर भी अभी तक इसके प्रमाण कम ही थे कि कम खाने वाले ज्यादा समय तक जिंदा रहते हैं। अब एन्ड्रयू डिलिन ने केलिफोर्निया के ला जोला स्थित साल्क इंस्टीट्यूट फॉर बायलॉजिकल स्टडीज में अध्ययन में एक जीन का पता किया है। इसका सीधा संबंध मनुष्य के जीवन से होता है। यह भी बात स्पष्ट रूप से सामने आई कि यदि कैलोरी सीमित कर दी जाए तो इससे जीवन अवधि ब़ढ़ सकती है। शोध दल ने पाया कि शरीर पीएच-4 नाम की जीन होती है, जो मनुष्य में विकास के लिए जिम्मेदार होती है। परंतु वयस्कों में ये कैलोरी के साथ कार्य करती है। मनुष्य में पीएचए-4 के समान तीन जीन और भी होती हैं। ये जीन ग्लूकागॉन से संबंधित रहती है। इसका संबंध पेनक्रियाज के हार्मोन से बना रहता है। यही शरीर में रक्त शर्करा को ब़ढ़ाता है और शरीर का संतुलन बनाए रखता है, विशेष रूप से उपवास आदि के दौरान। इसकी जानकारी स्वास्थ्य पोर्टल न्यूज मेडिकल में दी गई है।